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________________ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०२ इष्ट देवताविशेषं नमस्कृत्य व्याख्येयप्रतिज्ञानिर्देशार्थमाह 'जं जह' इति जं जह' जिणेहि दिलै जंह दिलृ सव्वदव्वसम्भावं। पुव्वावरअविरुद्धं तं तह संखेवदो वोच्छं ॥२॥ स्वभावस्वभाविनोरेकरवं निर्णीत्युपायं चाह-'जीव' इति जीवा पुग्गलकालो धम्माधम्मा तहेव आयासं। णियणियसहावजुत्ता वट्ठव्वा णयपमाणणयर्णेहिं ॥३॥ शिष्टाचारका परिपालन, पुण्यकी प्राप्ति और नास्तिकताका परिहार । आचार्य विद्यानन्दने अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक तथा आप्तपरीक्षाके प्रारम्भमें मंगल करनेके इन उद्देश्योंपर गम्भीरतासे प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि शिष्टाचार परिपालन, नास्तिकताका परिहार और निर्विघ्नरूपसे शास्त्रकी समाप्ति आदि तो तपश्चरण आदि अन्य कर्मोंसे भी हो सकती है। अतः इन्हीं के उद्देश्यसे ग्रन्थके प्रारम्भमें मंगलस्तव करना आवश्यक नहीं है । किन्तु जिनके द्वारा शास्त्रको परम्परा प्रवाहित हुई है तथा जिनके द्वारा शास्त्रोंमें वर्णित अर्थका बोध हमें प्राप्त हुआ है, उन परमेष्ठियोंका स्तवन करना हमारा कर्तव्य है क्योकि सज्जन किये हुए . उपकारको नहीं भूलते । यदि ग्रन्थकारको गुरुपरम्परासे ज्ञान प्राप्त न हुआ होता, तो वह कैसे शास्त्रको रचना कर सकते थे१ इसीसे इस ग्रन्थके रचयिताने भी अपने ग्रन्थके आदिमें उन जिनों और सिद्धोंको नमस्कार किया है, जिन्होंने त्रिकालवर्ती सब द्रव्योंके स्वरूपको यथावस्थित रूपसे जाना है । इससे जहाँ उनके प्रति अपनी कृतज्ञताका ज्ञापन होता है, वहाँ अन्यकी प्रामाणिकताका भी समर्थन होता है कि इस ग्रन्थमें जो द्रव्योंके स्वरूपका वर्णन है,वह मैंने अपनी बुद्धिसे कल्पित नहीं किया है, किन्तु त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सब द्रव्योंके स्वरूपको जिनेन्द्र देव और सिद्धपरमेष्ठीने देखा है। उन्हींको शिष्यपरम्परासे मुझे भी प्राप्त है। इसीसे मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जिनोंसे सिद्ध बड़े होते हैं क्योंकि जिन अरहन्त तो चार कर्मोंसे मुक्त होने पर भी अभी पूर्ण मुक्त नहीं हुए हैं और सिद्ध तो एक दम निष्कलंक है। किन्तु हमें तो ज्ञानको प्राप्ति अरहन्तोंके द्वारा ही होती है। उन्हींकी दिव्यध्वनिको स्मृतिमें रखकर गणधर द्वादशांगकी रचना करते है और फिर शिष्यपरम्परासे वही ज्ञान हमें प्राप्त होता है। अत: उपकारी होनेसे अरहन्तका प्रथम स्मरण किया जाता है; जैसा णमोकार मंत्रमें भी देखा जाता है । उसीका अनुसरण इस ग्रन्थके रचयिताने भी किया है । ___ इष्ट देवता विशेषको नमस्कार करके पूर्व में जो कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है, उसके निर्देशके लिए ग्रन्थकार 'जं जह' आदि गाथा कहते हैं जिनेन्द्रदेवने जो सब द्रव्योंका सद्भाव जैसा देखा और पूर्वापरविरोध रहित जैसा कहा है वैसा ही मैं संक्षेपसे कहूँगा ।। २ ॥ आगे स्वभाव और स्वभाववान्में एकत्वको तथा उसके निर्णय करनेके उपायको बतलाते हैं अपने-अपने स्वभावसे युक्त जीव पुद्गल, काल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य तथा आकाशको नय और प्रमाणरूपी आँखोंसे देखना चाहिए ।। ३ ।। विशेषार्थ-ग्रन्थकारने द्रव्योंके स्वरूप या स्वभावको कहनेकी प्रतिज्ञा की है। अतः वह सबसे प्रथम द्रव्योंके नाम बतलाते हैं कि मूल द्रव्य छह हैं—जीव, पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल । ये सर्वदा छह ही हैं और छह ही रहेंगे । इनमें से जीव द्रव्य तो अनन्त हैं, पुद्गल द्रव्य जीवोंसे भी अनन्त हैं क्योंकि एक एक जीवके भोगमें अनन्त पुद्गल कर्म, शरीर आदि रूपसे संलग्न हैं। काल द्रव्य असंख्यात है शेष तीन द्रव्य एक-एक है। इन द्रव्योंका अपना-अपना स्वभाव जुदा-जुदा है । और वह स्वभाव उनसे भिन्न नहीं हैं। वे सब द्रव्य अपने-अपने स्वभाव रूप ही हैं। जैसे अग्निका स्वभाव उष्णता अग्निसे भिन्न नहीं है, पने-अपने स्वभाववानसे अभिन्न होते हैं। किन्तु सर्वथा अभिन्न नहीं होते। यदि १. जं जं जि-मु० । २. सह ख० । ३. -त्युपायान्तरं ज० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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