SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयविवरणम् २६५ अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ।। बृ० स्व० स्तो० शंका-इसी तरह शेष अनन्तधर्मात्मकपना प्रधान क्यों नहीं है ? समाधान—चूंकि एक वाक्यसे अनन्तधर्मात्मकपना नहीं सुना जाता । शंका-तब एक ही वाक्यसे अनन्तधर्मात्मक वस्तुका बोध कैसे होता है ? समाधान-अभेदवृत्ति या अभेदोपचारके द्वारा एक धर्मसे शेष अनन्त धर्मोंका बोध कर लिया जाता है। __ शंका-तब तो सुने हुए के समान ही उसके द्वारा गम्यमान अनन्तधर्मोको भी उस एक वाक्यका अर्थ मानकर उन्हें भी प्रधान मानना चाहिए, अन्यथा श्रुतकी तरह ही सुने हुए वाक्यार्थको भी गौण मानना चाहिए। __ समाधान-तब गौण वाक्यार्थ और मुख्य वाक्यार्थका भेद कैसे करेंगे सभी शब्द व्यवहारवादी गौण और मुख्य वाक्यार्थीको मानते हैं । शंका-शब्दके द्वारा जिसका निश्चल रूपसे बोध होता है वह मुख्यवाक्यार्थ है ,चाहे वह श्रूयमाण हो अथवा गम्यमान हो और जिसका सचल बोध होता वह गौण वाक्यार्थ है। अतः शब्दके द्वारा गृहीत धर्म ही मुख्य होता है और अन्य गौण होता है । ऐसा कहना ठीक नहीं है। समाधान-जो निश्चल बोध होता है वही मुख्य वाक्यार्थ होता है , ऐसा कोई नियम नहीं है । जाननेवालेके द्वारा जाननेके लिए इष्ट वस्तु जब मुख्यार्थ होती है तो उसके प्रति कहे गये शब्दके द्वारा गृहीत धर्म प्रधान होता है और शेष अनन्त धर्म गौण होते हैं । शंका-'अस्ति जीव' इस वाक्यमें 'अस्ति' शब्दके वाच्य अर्थसे जीव शब्दका वाच्य अर्थ भिन्न है या अभिन्न है । यदि दोनों शब्दोंका अर्थ एक ही है तो दोनों शब्दोंके प्रयोगको आवश्यकता नहीं है। यदि दोनोंका अर्थ भिन्न है,तो 'अस्ति' शब्दके वाच्यार्थ अस्तित्वसे भिन्न होनेके कारण जीवके नास्तित्वका प्रसंग आता है। क्योंकि जो सत्से भिन्न होता है वह असत् होता है। समाधान-यह दोष सर्वथा एकान्तवादियोंके ही योग्य है, स्याद्वादी जैत्रोंके योग्य नहीं है, क्योंकि स्याद्वादी जैन 'अस्ति' शब्दके वाच्य अर्थसे जीव शब्दका वाच्य अर्थ कथंचित् भिन्न मानते हैं। पर्यायाथिककी दृष्टिसे 'अस्ति' शब्दका अर्थ 'सत्' है और जीव शब्दका अर्थ है-जीवनक्रिया विशिष्ट वस्तु । किन्तु द्रव्यार्थिकनयसे दोनोंके अर्थमें भेद नहीं है । इसमें कोई दोष नहीं है। हम जैन जिस रूपसे वस्तुको सत् मानते हैं, उसी रूपसे असत् नहीं मानते और जिस रूपसे असत् मानते हैं, उसी रूपसे सत् नहीं मानते । शंका-ऐसा मानने में तो एकान्तवादका दोष आता है, क्योंकि स्वरूपकी अपेक्षा वस्तु सत् ही है और पररूपको अपेक्षा असत् ही है। समाधान-सुनयकी अपेक्षासे एकान्तको मानना समीचीन है और प्रमाणको अपेक्षासे अनेकान्तका मानना समीचीन है। जिस अपेक्षासे अनेकान्त है,उस अपेक्षासे अनेकान्त ही है- इस प्रकारका एकान्त अनिष्ट नहीं है । कहा भी है प्रमाण और नयके द्वारा अनेकान्त मी अनेकान्तरूप है। प्रमाणकी अपेक्षासे अनेकान्त है और नयकी अपेक्षासे एकान्त है। किन्तु अनेकान्तमें अनेकान्तके माननेसे अनवस्था दोष नहीं आता है , क्योंकि एकान्तको सापेक्षतासे ही अनेकान्तको व्यवस्था बनती है और अनेकान्तकी सापेक्षतासे एकान्तकी व्यवस्था बनती है। परन्तु एकान्तके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy