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________________ २६० परिशिष्ट . प्रतिषेध्य नास्तित्वके साथ अविनाभावी सिद्ध हो,उसे ही हमारे उक्त अनुमानमें दृष्टान्त रूपसे समझ लेना चाहिए । अस्तु, स्वरूपको अपेक्षा अस्तित्व और पररूपकी अपेक्षा नास्तित्वमें कोई विरोध नहीं है। जैसे स्वरूपके ग्रहणसे वस्तुका अस्तित्व कायम है वैसे ही पररूपके त्यागपर भी वस्तुका अस्तित्व कायम है। यदि वस्तु वरूपके ग्रहणकी तरह पररूपको भी ग्रहण करने लगे तो अपने और परायेके भेदका सर्वथा अभाव हो जाये । इसी तरह यदि वस्तु पररूपके त्यागकी तरह स्वरूपको भी त्याग दे तो शून्यताका ही प्रसंग उपस्थित हो जाये । अतः सम्पूर्ण वस्तुएँ स्वद्रव्यमें हैं, परद्रव्यमें नहीं। स्वद्रव्यको स्वीकार और परद्रव्यको तिरस्कारको व्यवस्थासे वस्तुका स्वरूप बनता है। स्वद्रव्यकी तरह परद्रव्यको भी स्वीकार करनेपर स्वद्रव्य और परद्रव्यके भेदका ही अभाव हो जायेगा । अतः जैसे जीवादि वस्तु स्वद्रव्य जीवत्व रूपसे है, परद्रव्य पुद्गलादि रूपसे नहीं है, स्वभाव ज्ञानादि रूपसे है, परभाव रूपादि रूपसे नहीं है। वैसे हो सब वस्तुओंके सम्बन्धमें जानना चाहि इसी तरह प्रत्येक वस्तु स्वक्षेत्रमें है और परक्षेत्र में नहीं है, इसमें भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि स्वक्षेत्रके ग्रहण और परक्षेत्रके त्यागपर ही वस्तुका वस्तुत्व कायम है। अन्यथा क्षेत्रोंके संकरका प्रसंग आता है। निश्चयनयसे प्रत्येक वस्तुकी स्वात्मा ही उसका क्षेत्र है और व्यवहारनयसे आकाश आदि है। स्वद्रव्य और स्वक्षेत्रकी तरह प्रत्येकवस्तु स्वकालमें है, परकालमें नहीं है, इसमें भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि स्वकालके ग्रहण और परकालके त्यागसे हो वस्तुका वस्तूत्व कायम है.अन्यथा कालोंके सांकर्यका प्रसंग आता है। शंका-इस प्रकारसे तो एक वस्तुमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनों सिद्ध हुए तब तो केवल अस्तित्व या केवल नास्तित्वको सिद्धिकी बात तो नहीं रहती क्योंकि किसी वस्तु में केवल अस्तित्व या केवल नास्तित्व नहीं रहता। ___समाधान- नयविवक्षासे केवल अस्तित्व आदि भी सम्भव है। एक वस्तुमें अस्तित्व आदि नाना धर्मोके सिद्ध होनेपर भी यदि वादि-प्रतिवादी उसमेंसे एक धर्मको मानता है,तो जिस धर्मको वह नहीं मानता उसे उसका अविनाभावी मानकर सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार एक वस्तुमें युक्तिपूर्वक सिद्ध किये गये अस्तित्व आदि सात-धर्म किसी-किसी ज्ञाताके हृदय में सात प्रकारकी शंकाएँ उत्पन्न करते हैं।अतः सात प्रकारकी जिज्ञासा होती है । सात प्रकारको जिज्ञासासे सात प्रकारके प्रश्न होते हैं और सात प्रकारके प्रश्नोंके उत्तर रूपमें सात प्रकारके वचन-प्रयोग होते हैं । अतः श्नके वशसे एक वस्तुमें सप्तभंगी होती है- यह कथन उचित है। क्योंकि सातके अतिरिक्त आठवाँ भंगकी उत्पत्ति में निमित्त प्रश्नान्तर सम्भव नहीं है और प्रश्नान्तर सम्भव न होनेका कारण यह है कि जिज्ञासान्तर सम्भव नहीं है। और जिज्ञासान्तर सम्भव न होनेका कारण यह है कि सातके अतिरिक्त कोई आठवीं शंका नहीं है। और नयी शंका उत्पन्न न होनेका कारण यह है कि विधिनिषेधकी कल्पनाके द्वारा वस्तुमें कोई आठवाँ अविरुद्ध अन्यधर्म नहीं बनता । यदि कोई उक्त सात प्रकारके प्रश्नोंके अतिरिक्त नया प्रश्न उठाना चाहता है तो वह प्रश्न पृथक्पृथक् अस्तित्व-नास्तित्व के सम्बन्धमें है या समस्त अस्तित्व-नास्तित्वके सम्बन्धम है। यदि पृथक् अस्तित्वनास्तित्वके सम्बन्ध में नया प्रश्न है तो प्रधानरूपसे अस्तित्व या नास्तित्व सम्बन्धी प्रश्न प्रथम और दूसरे नम्बरके प्रश्नोंमें ही गभित हो जाते हैं । यदि सत्त्वको गीण करके और नास्तित्वको प्रधान करके प्रश्न है तो दूसरे प्रश्नमें गभित हो जायेगा और यदि नास्तित्वको गौण करके और अस्तित्वको प्रधान करके प्रश्न है तो प्रथम प्रश्नमें गर्भित हो जायेगा। यदि समस्त अस्तित्व-नास्तित्वके विषय में नया प्रश्न है तो क्रमसे होनेपर तीसरेमें और युगपत् होनेपर चतुर्थ में गभित हो जाता है। इसी तरह पहले और चौथेको मिलाकर किये गये प्रश्न पाँचवें में, दूसरे और चौथेको मिलाकर किया गया प्रश्न छठेमें और तीसरे-चौथेको मिलाकर किया गया प्रश्न सातवेंमें गभित हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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