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________________ २५८८ परिशिष्ट [तत्र प्रश्नवशात्कश्चिद्विधो शब्दः प्रवर्तते । स्यादस्त्येवाखिलं यद्वत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ।।४।। स्यान्नास्त्येव विपर्यासादिति कश्चिन्निषेधने । स्याद्वैतमेव तद्वैतादित्यस्तित्वनिषेधयोः ॥५।। क्रमेण योगपद्याद्वा स्यादवक्तव्यमेव तत् । स्यादस्त्यवाच्यमेवेति यथोचितनयार्पणात् ।।५।। स्थान्नास्त्यवाच्यमेवेति तत एव निगद्यते । स्याट्ठयावाच्यमेवेति सप्तभंग्यविरोधतः ॥५२॥ स्वरूप नहीं हैं, क्योंकि कालादिके भेदसे, पर्यायभेदसे और क्रियाभेदसे भिन्न अर्थकी उपलब्धि होती है। इस तरह व्यवहारनयके साथ उसके प्रतिपक्षी चार नयोंकी योजनाके द्वारा विधिनिषेध कल्पना करनेसे चार सप्तभंगी होती हैं। ऋजसूत्रनय विधि करता है कि सव पर्याय मात्र ही है। उसके प्रतिपक्षी शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय उसका प्रतिषेध करते हैं कि सब पर्यायमात्र नहीं है, काल आदिके भेदसे, पर्यायभेदसे या क्रिया भेदसे भिन्न पर्यायको उपलब्धि देखी जाती है। ब्रजसूत्रनयके साथ उसके प्रतिपक्षी इन तीन नयोंकी योजनाके द्वारा विधिनिषेधकी कल्पना करनेसे तीन सप्तभंगियाँ बनती हैं। शब्दनय विधि करता है कि सव कालादिभेदसे भिन्न हैं। उसके प्रतिपक्षी समभिरूढ़नय और एवंभूत निषेध करते हैं कि सब कालादिके भेदसे ही भिन्न नहीं है, किन्तु पर्यायभेद और क्रियाभेदसे भी भिन्न अर्थकी प्रतीति होती है। इस प्रकार शब्दनयके साथ उसके प्रतिपक्षी दो नयोंकी योजना करके विधिनिषेधकी कल्पना करनेसे दो सप्तभंगियाँ होती है। सातभंग पूर्ववत् जानना चाहिए। ___ समभिरूढनय विधि करता है कि सब पर्यायभेदसे भिन्न हैं। उसका प्रतिपक्षी एवंभूतनय निषेध करता है कि सब पर्यायभेदसे हो भिन्न नहीं है; क्रिया भेदसे पर्यायका भेद पाया जाता है । इन दोनों नयोंकी विधिनिषेध कल्पनासे केवल एक ही सप्तभंगी होती है। इस तरह मूलनय सम्बन्धो २१ सप्तभंगियाँ जाननी चाहिए । तथा मूल नयोंके उत्तर भेदोंके साथ भी उनके प्रतिपक्षी नयोंका अवलम्बन लेकर उक्त प्रकारसे सप्तभंगियोंकी योजना कर लेनी चाहिए। आगे सप्तभंगीका कथन करते हैं -- प्रश्न के अनुसार कोई शब्द तो केवल विधिमें ही प्रवृत्त होता है जैसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र स्वकाल और स्वभावले सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् सत्स्वरूप ही हैं। कोई शब्द निषेधमें प्रवृत्ति करता है। जैसेएरव्य, परक्षेत्र, परकाल और परमाबले सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् नास्तिस्वरूप ही हैं। कोई शब्द क्रमसे अस्तित्व और नास्तित्वमें प्रवृत्ति करता है; जैले सम्पूर्णपदार्थ स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा कथंचित् सत्स्वरूप ही हैं और परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा कथंचित् असत्स्वरूप ही हैं। कोई शब्द युगपद् अस्तित्वनास्तित्व में प्रवृत्ति करता है। जैले सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् अवक्तव्य ही हैं। इसी तरह यथायोग्य नयविवक्षासे सम्पूर्णपदार्थ कथंचित् सत् अवक्तव्यरूप ही हैं, कथंचित् असदवक्तव्य रूप ही हैं तथा कथंचित् सदसदवक्तव्य रूपही हैं। इस प्रकार अविरोधपूर्वक सप्तभंगी होती है। शंका समाधान पूर्वक सप्तभंगीके सम्बन्धमें प्रकाश डाला जाता है। शका-एक वस्तुमें स्याद्वादी जैन कथन करनेके योग्य अनन्तधर्म मानते हैं। अतः कथनके मार्ग भी अनन्त ही होना चाहिए; सात नहीं। अतः सप्तभंगीकी बात ठीक नहीं है। समाधान-प्रत्येक धर्म के विधि और निषेधको अपेक्षासे सप्तभंग होते हैं। इस प्रकारसे एक वस्तुम वर्तमान अनन्तधोके विधिनिषेधको लेकर अनन्त सप्तभंगियाँ भी हो सकती हैं। इसमें कोई विरोधकी बात नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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