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आलापपद्धति
२१३
स्वभावाः कथ्यन्ते । अस्तिस्वभावः, नास्तिस्वभावः, नित्यस्वभाव:, अनित्यस्वभावः, एकस्वभाव:, अनेकस्वभाव:, भेदस्वभाव:, अभेदस्वभाव:, भव्यस्वभावः अभव्यस्वभावः, परमस्व मावः, द्रव्याणामेकादशसामान्यस्वभावाः । चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभाव:, मूर्तस्वभावः, अमूर्तस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अनेक प्रदेशस्वभाव:, विभावस्वभावः, शुद्धस्वभावः, अशुद्धस्वभावः, उपचरितस्वभावः, एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः । जीवपुद्गलयोरेकविंशतिः स्वभावाः । चेतनस्वभाव:, मूर्तस्वभावः, विभावस्वभावः, एकप्रदेशस्वभावः, अशुद्धस्वभावः, एतैर्विना धर्मादित्रयाणां षोडश । तत्र बहुप्रदेशं विना कालस्य पञ्चदश
स्वभावाः ।
एकविंशतिभावाः स्युर्जीवपुद्गलयोमंताः ।
धर्मादीनां षोडश स्युः काले पञ्चदश स्मृताः ॥ २ ॥
ते कुतो ज्ञेयाः । प्रमाणनयेविवक्षातः । सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । तद् द्वेधा प्रत्यक्षेतरभेदात् । अवधिमनःपर्ययावेकदेशप्रत्यक्षौ ँ । केवलं सकलप्रत्यक्षम् । मतिश्रुते परोक्षे । प्रमाणमुक्तम् । तदवयवा नयाः ।
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कम तदाकार होकर रह जाते हैं। उनका वह आकार स्वभावद्रव्य व्यंजन पर्याय है और उनकी अनन्तचतुष्टय रूप गुणावस्था स्वभावगुण व्यंजन पर्याय है। इसी तरह पुद्गलकी परमाणुरूप अवस्था स्वभाव द्रव्यव्यंजन पर्याय है । और उस परमाणु में जो गुण - एक रूप, एक रस, एक गन्ध, दो स्पर्श पाये जाते हैं, वे स्वभाव गुणव्यंजन पर्याय हैं । परमाणु परमाणु मिलकर जो स्कन्ध बनता है, वह पुद्गलकी विभाव द्रव्यव्यंजन पर्याय है और स्कन्धके गुणोंकी परिणति विभाव गुणव्यंजन पर्याय है । इस प्रकार गुण और पर्यायोंसे जो युक्त होता है उसे द्रव्य कहते हैं । आगममें द्रव्यके दो लक्षण किये गये हैं- उत्पाद, व्यय और धौव्यसे जो युक्त हो उस सत्को द्रव्य कहते हैं । और गुण पर्यायसे जो युक्त हो उसे द्रव्य कहते हैं । इन दोनों लक्षणोंमें कोई अन्तर नहीं है, एक दूसरेका प्रकाशक है । पर्याय उत्पादव्ययशील होती हैं और गुण नित्य होते हैं । अतः जब कहा जाता है कि द्रव्य पर्याय युक्त है तो व्यक्त होता है कि वह उत्पादव्यययुक्त है । और जब कहा जाता है कि द्रव्य गुणयुक्त है तो व्यक्त होता है कि द्रव्य ध्रुव है ।
अब स्वभावोंको कहते हैं— अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव, नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव, भव्यस्वभाव, अभव्यस्वभाव, परमस्वभाव, ये ग्यारह द्रव्योंके सामान्य स्वभाव हैं । चेतनस्वभाव, अचेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, अमूर्तस्वभाव, एकप्रदेशस्वभाव, अनेक प्रदेशस्वभाव, विभावस्वभाव, शुद्धस्वभाव, अशुद्धस्वभाव, उपचरितस्वभाव, ये द्रव्योंके दश विशेष स्वभाव हैं । जीव और पुद्गलके इक्कीस स्वभाव होते हैं । चेतनस्वभाव, मूर्तस्वभाव, विभावस्वभाव, एक प्रदेशस्वभाव, अशुद्धस्वभाव इन पाँच स्वभावोंके विना धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य में सोलह स्वभाव होते हैं । उनमें से बहुप्रदेशस्वभाव के विना कालके पन्द्रह स्वभाव हैं ||२||
जीव और पुद्गलमें इक्कीस स्वभाव है। धर्म आदि तीन द्रव्यों में सोलह स्वभाव हैं और कालद्रव्यमें पन्द्रह स्वभाव हैं ।
शंका- वे द्रव्यादि कैसे जाने जाते हैं--उनका ज्ञान कैसे होता है ?
समाधान - प्रमाण और नयविवक्षासे द्रव्यादिका ज्ञान होता है ।
सच्चे ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । प्रमाणके दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान एकदेश प्रत्यक्ष हैं ओर केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं । इस प्रकार प्रमाणका कथन किया । प्रमाणके ही भेद नय हैं ।
१. 'प्रमाणनयैरधिगमः ' । - तत्त्वा० सू० १६ । २. ' मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि ज्ञानम् ॥ ९ ॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आद्ये परोक्षम् ||११|| प्रत्यक्षमन्यत् ॥ १२ ॥ ' - तत्त्वार्थसूत्र | ३. 'देशप्रत्यक्षमवधिमन:पर्ययज्ञाने, सर्वप्रत्यक्षं केवलम् ।'—सर्वार्थसि० १/२१ । ४. श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः । सर्वार्थसि० १६ ।
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