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________________ -३८८ ] नयचक्र १९५ आदा तणुप्पमाणो णाणं खलु होइ तप्पमाणं तु । तं संचेयणरूवं तेण हु अणुहवइ तत्थेव ॥३८६॥ पस्सदि तेण सरूवं जाणइ तेणेव अप्पसब्भावं । अणुहवइ तेण रूवं अप्पा णाणप्पमाणादो ॥३८७॥ 'अप्पा णाणपमाणं गाणं खल होइ जीवपरिमाणं । णवि णूणं णवि अहियं जह दीवो तेण परिमाणो ॥३८८॥ होनेके लिए न तो इष्ट विषयोंमें राग करना चाहिए और न अनिष्ट विषयोंसे द्वेष करना चाहिए। राग-द्वेषका त्याग किये बिना चित्त स्थिर नहीं हो सकता। इसीसे ध्यानके लिए व्रत, समिति, गुप्ति आदि भी अपेक्षित हैं। ज्ञानको स्थिरताका ही नाम ध्यान है।अतः ज्ञानका कथन करते हैं आत्मा शरीरके बराबर है और ज्ञान आत्माके बराबर है। वह ज्ञान संचेतनरूप है।अतः उसीमें उसका अनुभव करना चाहिए ॥३८६॥ ज्ञानके द्वारा ही यह जीव अपने स्वरूपको देखता है। ज्ञानके द्वारा ही आत्माके स्वभावको जानता है । ज्ञानके द्वारा आत्मस्वरूपका अनुभव करता है,क्योंकि आत्मा ज्ञानप्रमाण है ॥३८७॥ विशेषार्थ-जिस जीवका जितना बड़ा शरीर होता है, उतना ही आकार उसको आत्माका होता है । जैसे दीपकका प्रकाश स्थानके अनुसार फैलता और सकुचता है, वैसे आत्माके प्रदेश भी शरीरके अनुसार संकोच-विकासशील होते हैं। आत्मा न तो शरीरसे बाहर है और न शरीरका कोई भाग ऐसा है जिसमें न हो। आत्मा सर्वशरीर व्यापी है । आत्मामें अनन्तगण हैं। उनमेंसे एक ज्ञानगण ही ऐसा है, जिसके द्वारा सबकी जानकारी होती है । ज्ञान स्वयं अपनेको भी जानता है और दूसरोंको भी जानता है। स्व और परको जाननेवाला एकमात्र ज्ञान ही है। यह ज्ञान आत्माका स्वाभाविक गुण है। और दीपककी तरह सदा प्रकाशमय है। संसार अवस्थामें आवृत होनेसे वह ज्ञान मन्द हो जाता है | अतः इन्द्रियोंकी सहायतासे ज्ञान होता है, किन्तु इससे यह मतलब नहीं निकालना चाहिए कि इन्द्रियोंके बिना ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियोंकी सहायतासे होनेवाला ज्ञान पराधीन होता है और इन्द्रियोंकी सहायताके बिना स्वाधीन ज्ञान होता है। इस ज्ञान गुणके द्वारा ही जीव अपने स्वरूपको जानता है और उसीके द्वारा आत्मानुभव करता है। आत्मानुभवके पश्चात् शुद्धात्माको प्राप्तिके लिए जो प्रत्याख्यानादि करता है, वह भी ज्ञानरूप ही है क्योंकि आत्मा ज्ञानस्वभाव है।ज्ञानके द्वारा परद्रव्यको पर जानकर उसको ग्रहण न करना, यही तो त्याग है। इस तरह ज्ञानमें त्यागरूप अवस्थाका ही नाम प्रत्याख्यान है। जैसे कोई मनुष्य धोबीके घरसे दूसरेका वस्त्र लाकर और उसे भ्रमसे अपना मानकर ओढ़कर सो गया। जिसका वस्त्र था उसने उसे पहचानकर जगाया और कहा, यह तो मेरा वस्त्र है। तब वह उस वस्त्रको चिह्नोंसे पराया जान तत्काल त्याग देता है। उसी तरह यह आत्मा भ्रमसे परद्रव्यको अपना मानकर बेखबर सोता है। जब उसे सत्गुरु सावधान करते हैं कि तू तो ज्ञानमात्र है.अन्य सब परद्रव्यके भाव है। इस तरह भेदज्ञान कराते हैं, तब वह बारम्बार शास्त्र-श्रवणके द्वारा उसी बातको जानकर समस्त अपने और परके चिह्नोंसे अच्छी तरह परीक्षा करके निश्चय करता है-मैं एक ज्ञानमात्र हूँ, अन्य सब परभाव हैं। इस तरह यथार्थज्ञानी होकर सब परभावोंको तत्काल छोड़ देता है और आत्मस्वभावमें लीन होनेका प्रयत्न करता है । अतः ज्ञानकी भावना करना चाहिए। आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान आत्मा प्रमाण है; न कम है और न ज्यादा है। जैसे दीपक है, उसी तरह आत्माका परिमाण है ।।३८८॥ १. णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा। हीणो वा अहियो वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥ हीणो जदि सा आदा तण्णाणमचेदणं ण जाणादि। अहियो वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि-प्रवचनसार ११२४-२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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