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नयचक्र
दोष लगता है, उसकी शुद्धि करनेको प्रायश्चित्त तप कहते हैं। प्रायश्चित्तके दस भेद है-आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, मूल, छेद, परिहार, उपस्थापना। गुरुसे विनयपूर्वक अपने प्रमादका निवेदन करना आलोचना प्रायश्चित्त है। उसके दस दोष है--आकम्पित, अनुमापित, दृष्ट, बादर, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित बहुजन, अव्यक्त और, तत्सेवित । उपकरणोंको देनेपर गुरु मुझे थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार कर उपकरण भेंट करके दोषका निवेदन करना आकम्पित दोष है । मैं प्रकृतिसे दुर्बल हूँ, रोगी हूँ, उपवास वगैरह करनेमें असमर्थ हूँ, यदि हलका प्रायश्चित्त देंगे तो दोषका निवेदन करूंगा,यह दूसरा अनुमापित दोष है। दूसरेके द्वारा न देखे गये दोषको छिपाकर देखे गये दोषका निवेदन करना दृष्ट नामका तीसरा दोष है । आलस्य, प्रमाद या अज्ञानसे स्थूल दोषका निवेदन करना चतुर्थ बादर दोष है। महान् प्रायश्चित्तके भयसे अथवा 'यह सूक्ष्मसे भी दोषको दूर करना चाहता है' इस प्रकारको अपनी प्रशंसाको भावनासे महान् दोषको छिपाकर सूक्ष्म दोषका निवेदन करना पांचवां सूक्ष्म दोष है। यदि व्रतमें इस प्रकारका दोष लग जाये तो उसका क्या प्रायश्चित्त होता है, इस उपायसे गुरुकी उपासना करना छठा छन्न दोष है । जब मुनिगण पाक्षिक, चातुर्मासिक या वार्षिक प्रतिक्रमण करते हों और इस तरह मुनिसंघमें आलोचनाका शोर हो रहा हो, तब पूर्व दोषका कथन करना सातवां शब्दाकुलित नामका दोष है। गुरुके द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त क्या आगमसम्मत है ? इस प्रकारकी आशंका करके अन्य साधुओंसे पुछना आठवां बहुजन नामका दोष है । किसी अपने समान साधुके सामने हो अपने दोषका निवेदन करके लिया गया महान् प्रायश्चित्त भी फलदायक नहीं होता, अतः यह नवमा अव्यक्त दोष है। इस साधुके दोषके समान ही मेरा भी दोष है यही उसे जानता है, इसे जो प्रायश्चित्त दिया है वही मेरे लिए भी ठीक है इस प्रकार अपने दोषको छिपाना दसवा तत्सेवित दोष है। जो अपने अपराधको न छिपाकर बालककी तरह सरल भावसे अपने दोषोंको निवेदन करता है, उसे ये दोष नहीं लगते । जो साधु लज्जा या तिरस्कारके भयसे अपने अतिचारोंकी शुद्धि नहीं करता,वह अपने आय-व्ययकी परीक्षा न करनेवाले व्यापारीकी तरह कष्ट उठाता है। बिना आलोचनाके लिया हुआ महान् प्रायश्चित्त भी इष्ट फलदायक नहीं होता । 'मेरा दोष मिथ्या होवे' इस प्रकारको मानसिक प्रतिक्रियाको प्रतिक्रमण कहते हैं। कुछ दोष तो आलोचना मात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं, कुछ प्रतिक्रमण करनेसे शुद्ध होते हैं। कुछ आलोचन और प्रतिक्रमण दोनोंसे शुद्ध होते हैं । सदोष आहार तथा उपकरणोंका संसर्ग होनेपर उसका त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त है । कुछ समय के लिए कायोत्सर्ग करना व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त है। अनशन आदि करना तप प्रायश्चित्त है। दीक्षाके समयको छेद देना छेद प्रायश्चित्त है। कुछ समयके लिए संघसे निकाल देना परिहार प्रायश्चित्त है। पुरानी दीक्षाको छेदकर पुनः दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित्त है। पूज्य पुरुषोंका आदर करना विनयतप है। विनयके चार भेद है--ज्ञानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय और उपचारविनय । आलस्य त्यागकर आदरपूर्वक सम्यग्ज्ञानका ग्रहण करना ज्ञानविनय है। तत्त्वार्थका शंका आदि दोषरहित श्रद्धान करना दर्शनविनय है । अपने मनको चारित्रके पालने में लगाना चारित्रविनय है । आचार्य आदि पूज्य पुरुषोंको देखकर उठना, उनके सम्मुख जाकर हाथ जोड़कर वन्दना करना, उनके परोक्षमें भी उन्हें नमस्कार करना, उनके गुणोंका स्मरण करना, उनकी आज्ञाका पालन करना उपचारविनय है। शरीर वगैरहके द्वारा आचार्य आदि की सेवा करना वैयावृत्त्यतप है। आलस्य त्यागकर ज्ञानकी आराधना करना स्वाध्याय है, उसके चार भेद हैं-धर्मके इच्छुक विनयशील पात्रोंको शास्त्र देना, शास्त्रका अर्थ बतलाना वाचना है । संशय दूर करनेके लिए अथवा निश्चय करनेके लिए विशिष्ट ज्ञानियोंसे पूछना पृच्छना है। जाने हुए अर्थका मनसे अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। शुद्धतापूर्वक पाठ करना आम्नाय है। धर्मका उपदेश करना धर्मोपदेश है। ये चार स्वाध्यायके भेद है। त्यागको स्युत्सर्ग कहते हैं, उसके दो भेद है-आत्मासे भिन्न धन-धान्य आदिका त्याग करना बाह्योपधित्याग है। और क्रोधादि भावोंको त्यागना अभ्यन्तर उपधित्याग है। उत्तम संहननके धारक मनुष्यका अपनी चित्तकी वृत्तिको सब ओरसे हटाकर एक ही विषयमें लगाना ध्यान है। ध्यानके चार भेद है-आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । आदिके दोनों ध्यान संसार के कारण हैं और अन्तके दोनों ध्यान मोक्षके
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