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नयचक्र
सद्धा तच्चे दंसण तस्सेव सहावजाणगं गाणं । अहणवित्ती चरणं ववहारो मोक्खमग्गं च || ३२१॥ व्यवहाररत्नत्रयस्य ग्रहणोपायं साधकमावं चाह -
तह अहिगमदो णिसग्गभावेण केवि गिण्हति । एवं हि ठाइऊण णिच्छयभावं खु साहंति ॥ ३२२ ॥ आदे तिदयसहावे णो उवयारं ण भेदकरणं च । तं णिच्छेयं हि भणियं जं तिण्णिवि होइ आदेव ॥ ३२३॥
। भिन्न वस्तुओंमें किसी प्रकारके सम्बन्धको लक्ष्य करके एकका दूसरेमें आरोप करना असद्भूत व्यवहारनय है । जैसे ज्ञान और ज्ञेयका, श्रद्धान और श्रद्धेयका और आचरणीय और चारित्रका सम्बन्ध है । ज्ञान ज्ञेय पदार्थको जानता है । इसीसे ज्ञानको घटज्ञान, पटज्ञान आदि कहा जाता है। वास्तवमें तो ज्ञान ज्ञान ही हैं और घट घट ' है। न कभी ज्ञान घटरूप हो सकता है और न घट ज्ञान रूप हो सकता है, फिर भी चूँकि ज्ञान घटको जानता है, इसलिए उसे घटज्ञान कहा जाता है। यहाँ ज्ञेयका कथन ज्ञान रूपसे किया जाता है । इसी तरह तत्त्वार्थ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । श्रद्धेय तो आत्माका गुण है, उसका आलम्बन जीवादि तत्त्व हैं जो श्रद्धा विषय हैं, अतः श्रद्धाके आलम्बनोंको सम्यग्दर्शन कहना असद्भूतव्यवहारनय है । इसी तरह चारित्र आत्माका गुण है, चारित्रके आलम्बन हैं- बाह्य वस्तु जिनका त्याग या ग्रहण किया जाता है, उनको चारित्र कहना असद्भूतव्यवहारनय है । इस तरह नय विवक्षासे भी सम्यग्दर्शनके भेद हो जाते हैं ।
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आगे व्यवहाररत्नत्रयको कहते हैं-
तत्त्वोंकी श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है, तत्त्वार्थ के स्वरूपको जानना सम्यग्ज्ञान है और अशुभ कार्योंको त्यागना सम्यक् चारित्र है, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है ॥ ३२१॥
व्यवहार रत्नत्रयके ग्रहणका उपाय तथा साधकपना कहते हैं-
कुछ लोग सर्वज्ञ देवकी आज्ञाके रूपमें, कुछ परोपदेशसे तथा कुछ परोपदेश के विना स्वतः ही व्यवहाररत्नत्रयको ग्रहण करते हैं और इस तरह वे व्यवहाररत्नत्रयकी स्थापना करके निश्चयरत्नत्रय रूप भावकी साधना करते हैं ॥ ३२२ ॥
निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप कहते हैं-
रत्नत्रय स्वरूप आत्मामें न उपचार करना और न भेद व्यवहार करनेको निश्चय कहा है, क्योंकि रत्नत्रय तो आत्मा ही है अर्थात् आत्मासे भिन्न रत्नत्रय नहीं है ॥ ३२३ ॥
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१. तं चैव अ० क० ख० ज० । तच्चेव मु० । 'धम्मादीसहहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्टा तवंहि चरिया हारो मोक्खमग्गोत्ति ॥ १६० ॥ ' - - पञ्चास्ति० । २. 'असुहादो विणिवित्ति सुहे पविती य जाण चारितं । ... ववहारणयादु जिणभणियं ॥ ४५ ॥ - द्रव्यसंग्रह । ३. छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्टाणं । आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ५६०॥ गो० जीव० । ४. णिच्छये हि अ० क० ख० ज० मु० । णिच्चयणयेण भणिदो तिहि तेहि समाहिदो हु जो अप्पा । ण कुणदि किंचिवि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गोति ॥१६१ ॥ जो चरदि णादि पिच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्चिदो होदि ॥ १६२ ॥ - पञ्चास्ति० । 'निश्चयव्यवहाराम्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद्वितीयस्तस्य साधनम् । श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा मोक्षमार्गः स निश्चयः ॥ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥ - तत्त्वार्थसार | 'रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुयितु अण्ण दवियम्हि । तम्हा तत्तियमइयो होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा ॥४०॥ - द्रव्यसंग्रह ।
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