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-२९६ ]
नयचक्र
उक्त च
य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः॥ णो ववहारेण विणा णिच्छयसिद्धी कया वि णिद्दिठ्ठा । साहणहेऊ जह्मा तस्स य सो भणिय ववहारो ॥२९६।।
वस्तुको सर्वथा नित्य माना जायेगा तो उसमें कोई परिवर्तन ही नहीं हो सकेगा। जो संसारी है वह सर्वदा संसारी ही बना रहेगा,मुक्त होगा ही नहीं। इसी तरह सर्वथा क्षणिक माननेसे जो करता है वही अपने कर्मका फल भोगता है, यह बात नहीं बनेगी क्योंकि जिसने किया वह तो नष्ट हो गया। इसी तरह सांसारिक लेन-देन आदिका व्यवहार भी उठ जायेगा। यह व्यवहार स्मरणमूलक है और क्षणिकवादमें स्मरण नहीं बनता,क्योंकि पूर्व अनुभूतको याद करना स्मरण कहा जाता है किन्तु जिसने पहले अनुभव किया था वह तो नष्ट हो गया । इसलिए दोनों ही एकान्त मिथ्या हैं। किन्तु उन्हें स्यात् सापेक्ष करने पर दोनों यथार्थ हैं । जैसे द्रव्यरूपसे वस्तु नित्य है और पर्याय रूपसे अनित्य है ।
यही बात स्वामो समन्तभद्रने अपने बृहत्स्वयंभूस्तोत्रमें भगवान् विमलनाथकी स्तुति में कही है--
जो परस्पर निरपेक्ष, नित्य और क्षणिक आदि दृष्टियाँ हैं वे अपना और परका विनाश करनेवाली हैं। किन्तु परस्पर सापेक्ष वे ही दृष्टियाँ विमलनाथ भगवानके मतमें तात्त्विक हैं। उन्हींके आधार पर तत्त्वकी व्यवस्था होती है अतः वे स्व और परका उपकार करनेवाली हैं ।
आगे व्यवहारको निश्चयका साधक कहते हैं--
व्यवहारके बिना कभी भी निश्चयको सिद्धि नहीं होती। इसलिए निश्चयकी सिद्धि में जो हेतु है उसे व्यवहार कहा है ।। २९६ ॥
विशेषार्थ-छहढालामें पं० दौलतरामजीने भी कहा है-'जो सत्यारथरूप सो निश्चय कारण सो ववहारो।' पंचास्तिकाय गाथा १५९ की टीकाके अन्तमें आचार्य अमृतचन्द्रजीने लिखा है-'एवं हि शद्धद्रव्याश्रितमभिन्नसाध्यसाधनभावं निश्चयनयमाश्रित्य मोक्षमार्गप्ररूपणम् । यत्तु पूर्वमुद्दिष्टं तत् स्वपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम । न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात् सुवर्णसुवर्णपाषाणवत् । अत एवोभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति ।' अर्थात्-- इस प्रकार शुद्ध द्रव्यके आश्रित, अभिन्न साध्यसाधनभाववाले निश्चयनयके आश्रयसे मोक्ष मार्गका निरूपण किया । और जो पहले ( गाथा १०७ में ) कहा गया था वह तो स्वपरहेतुक पर्यायके आश्रित भिन्न साध्यसाधन भाववाले व्यवहारनयके आश्रयसे कहा गया था । ये दोनों कथन परस्परमें विरुद्ध नहीं हैं, क्योंकि सुवर्ण और सूवर्ण पाषाणकी भाँति निश्चय और व्यवहारमें साध्य-साधनपना है। इसीलिए पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना दोनों नयोंके अधीन है।
निश्चयनयका विषय शुद्धद्रव्य है। उसमें साध्य और साधन अभिन्न होते हैं। जैसे-पंचास्तिकाय गाथा १५९ की टोकामें कहा है-जो मुनि समस्त मोहचक्रसे रहित होनेसे अपना स्वरूप परद्रव्यके स्वभाव रूप भावोंसे रहित है-ऐसा अनुभवन करते हैं और स्वद्रव्यमें ही निर्विकल्परूपसे अत्यन्त लीन होकर निजस्वभावभूत दर्शन-ज्ञान भेदोंको भी आत्मासे अभेदरूपसे आचरण करते हैं, वे मुनि स्वचारित्रका आचरण करनेवाले हैं। इस तरह निर्विकल्प ध्यानपरिणत मुनि निश्चयमोक्षमार्गी कहे जाते हैं,क्योंकि वहाँ साध्य मोक्ष और साधन मोक्षमार्ग दोनों एक शुद्धात्मपर्यायरूप हैं । तथा जिस नयमें साध्य और साधन भिन्न प्ररूपित किये गये हों उसे व्यवहारनय कहते हैं, जैसे-छठे गुणस्थानमें तत्त्वार्थश्रद्धान, तत्त्वार्थज्ञान और पंचमहाव्रतादिरूप चारित्र व्यवहार मोक्षमार्ग है.क्योंकि यहाँ साध्य मोक्ष से तत्त्वार्थ-श्रद्धानादि रूप मोक्षमार्ग भेदरूप है । जैसे व्यव
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