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________________ १४२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा०२८७ व्यवहारविप्रतिपत्तिवादिनां निराकरणार्थमाह णियसमयं पि य मिच्छा अह जड सुण्णो य तस्स सो चेदा। जाणगभावो मिच्छा उवयरिओ तेण सो भणई ॥२८७॥ जं चिय जीवसहावं उवयारं भणिय तं पि ववहारो। तम्हा णहु तं मिच्छा विसेसदो भणइ सब्भावं ॥२८॥ झेओ जीवसहावो सो इह सपरावभासगो भणिओ। तस्स य साहणहेऊ उवयारो भणिय अत्थेसु ॥२८९॥ जह सब्भूओ भणिदो साहणहेऊ अभेवपरमत्थो। तह उवयारो जाणह साहणहेऊ अणुवयारो॥२९०।। उक्तं च गाथाद्वयन ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्तदंसणं णाणं । ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो॥-समयसार गा० ७ जो इह सुदेण' भिण्णो जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सूयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा।-समयसार गा० ९ इस प्रकार व्यवहार मार्गमें विवाद करनेवालोंके निराकरणके लिए कहते हैं-- उक्त प्रकारसे कहनेवालेको आत्मा यदि जड़ और शून्य है तो स्वसमय भी मिथ्या ठहरता है। किन्तु ज्ञायक भाव मिथ्या है इसलिए उसे उपचरित कहा है। जीवका जो स्वभाव उपचरित कहा है वह भी व्यवहार है। इसलिए वह मिथ्या नहीं है, किन्तु विशेष रूपसे स्वभावको कहता है। जीवका स्वभाव ध्येय-ध्यान करनेके योग्य है। और उस स्वभावको स्व और पर का प्रकाशक कहा है। उस स्वभावके साधनका हेतु उपचार पदार्थों में कहा है। जैसे सद्भूत व्यवहारनय परमार्थ अभेदके साधनका हेतु है,वैसे ही उपचार, अनुपचारके साधनका हेतु है ।। २८७-२९० ।। आचार्य कुन्दकुन्दने कहा भी है ज्ञानीके ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों भाव व्यवहारनयसे कहे जाते हैं। निश्चयनयसे ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं है। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। तथा जो जीव श्रुतज्ञानसे इस केवल एक शुद्ध आत्माको जानता है, लोकको प्रकाश करनेवाले ऋषीश्वर उसे श्रुत केवल कहते हैं। शेषार्थ-जो यह जीवका ज्ञायक भाव है वह स्वतःसिद्ध है, किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ उसका कभी विनाश भी नहीं होता, इसलिए वह अनादि अनन्त है। किन्तु अनादि बन्ध पर्यायको अपेक्षा पौद्गलिक कर्मोके साथ दूध-पानीकी तरह एकमेक होने पर भी, द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षा, कषायके उदयसे होनेवाले शुभाशुभ भावरूप परिणमन नहीं करता-ज्ञायक भावसे जड़ भाव नहीं हो जाता । उस ज्ञायक भावकी समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंसे भिन्न उपासना करने पर उसे शुद्ध कहा जाता है। जैसे अग्नि जिसको जलाती है उसके ही आकार होती है। किन्तु उस अवस्थामें भी अग्नि अग्नि ही है, अग्नि ईधन रूप नहीं है। उसी तरह ज्ञेयनिष्ठ होनेसे आत्माको ज्ञायक कहते हैं, किन्तु उस अवस्थामें भी आत्मा ज्ञेयरूप नहीं होता, ज्ञायक ही रहता है। जैसे दीपक स्व-पर प्रकाशक है। जब वह घटादिका प्रकाशन करता है तो उस अवस्थामें भी वह दोपक ही है,दूसरा नहीं है। वैसे ही आत्मा जब ज्ञेयोंको जानता है तो जाननेको अवस्थामें भी स्वयं ज्ञायक रूप ही है,ज्ञेयरूप नहीं होता। अर्थात् ज्ञेयाकार अवस्थामें भी ज्ञायक भाव द्वारा जाना गया जो अपना ज्ञायक भाव है वही स्वरूपको जाननेको अवस्थामें भी है। अतः पर द्रव्योंको जानने मात्रसे उसमें अशुद्धता विरो १. जो हि सुदेण हिगच्छइ अप्पाण- समयसार गा. ९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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