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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
तत्त्वस्य हेयोपादेयत्वमाह
तच्च पि हेयमियरं हेयं खलु होइ ताणे पदव्वं । दिव्वे पिय जाण हेर्यो हेयं च णयजोए ॥२६२॥ मिच्छा सरागभूदो हेयो आदा हवेइ नियमेण । तव्विवरीयो झेओ णायव्वो सिद्धिकामेण ॥ २६३ ॥ व्यवहारनिश्वययोः सामान्यलक्षणमाह-
जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो विवरीओ णिच्छयो होइ ॥ २६४॥
[ गा० २६२
आगे तत्त्वमें हेय और उपादेयका विचार करते हैं
तत्त्व भी हेय और उपादेय होता है । पर द्रव्यरूप तत्त्व हेय है । निज द्रव्यमें भी नयके योगसे हेय और उपादेय जानना चाहिए || २६२ || मिथ्यादृष्टि और सरागी आत्मा नियमसे हेय है और सम्यक्त्वी वीतरागी आत्मा मुमुक्षुके द्वारा ध्यान करनेके योग्य जानना चाहिए ॥ २६३||
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विशेषार्थ - जो ग्रहण करने योग्य होता है उसे उपादेय कहते हैं और जो त्यागने योग्य होता है उसे य कहते हैं । छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नो पदार्थ जिन शासनमें कहे हैं । इनमें से जो पर द्रव्य हैं वे सब हेय हैं और एकमात्र आत्मा ही उपादेय है । किन्तु आत्माके भी तीन प्रकार हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्यद्रव्य शरीर, पुत्र, स्त्री वगैरह में हो जिनकी आत्मबुद्धि है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको बहिरात्मा कहते हैं । तथा जो जीव और शरीरके भेदको जानकर शरीरसे भिन्न आत्मामें ही आत्मबुद्धि रखते हैं उन सम्यग्दृष्टि जीवोंको अन्तरात्मा कहते हैं । अन्तरात्मा के तीन प्रकार हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है, व्रती श्रावक और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं, तथा प्रमादजयी महाव्रती मुनि उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं । और अरहंत तथा सिद्ध परमात्मा हैं । आत्माके इन तीन प्रकारोंमें भी मिथ्यादृष्टि तथा सरागी आत्मा हेय हैं और वीतरागी आत्मा ही उपादेय हैं । अर्थात् शुद्धात्मा ही उपादेय है और अशुद्धात्मा हेय है । अतः जो शुद्धात्माको ही उपादेय मानकर उसीका ध्यान करता है वही शुद्ध दशाको प्राप्त होता है । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शुभ और अशुभ दोनों अशुद्धदशामें ही गर्भित हैं । अतः मिथ्यात्वीकी तरह सरागी आत्मा भी हैय है । इस कथन के द्वारा ग्रन्थकारने परद्रव्यको हेय और आत्मद्रव्यको उपादेय बतलाकर भी आत्माकी वीतराग दशाको ही उपादेय बतलाया है, सराग दशाको नहीं । अतः वीतराग अवस्था ही ध्येय है, उसीका सदा मुमुक्षुको ध्यान करना चाहिए ।
आगे निश्चयनय और व्यवहारनयका सामान्य लक्षण कहते हैं—
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जो एक वस्तुके धर्मों में कथंचित् भेदका उपचार करता है उसे व्यवहारनय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चयनय होता है || २६४॥
विशेषार्थ - जैसे आगम में वस्तुस्वरूपको जाननेके लिए द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय हैं, वैसे ही अध्यात्ममें आत्माको जाननेके लिए निश्चय और व्यवहारनय हैं । धर्मी वस्तु और उसके धर्म भिन्न-भिन्न नहीं
१. खलु भणियताण ज० अ० मु० क० ख० । २. तेषां मध्ये । ३. णियदव्वं ज० अ० क० ख० मु० । ४. हेयादेयं ज० मु० । ५. 'धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । - समयसारटीका अमृतचन्द्र गा० ७ । 'शुद्धद्ध व्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः । ''''अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः । प्रवचनसारटीका अमृतचन्द्र गा० २।९७ । 'गुणगुणिनोरभेदेऽपि भेदोपचार इति सद्भूतव्यवहारलक्षणम् । द्रव्यसं० टी० गा० ३ । 'निश्चयनयोऽभेदविषयः व्यवहारो भेदविषय : ' आलापप० ।
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