SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक तत्त्वस्य हेयोपादेयत्वमाह तच्च पि हेयमियरं हेयं खलु होइ ताणे पदव्वं । दिव्वे पिय जाण हेर्यो हेयं च णयजोए ॥२६२॥ मिच्छा सरागभूदो हेयो आदा हवेइ नियमेण । तव्विवरीयो झेओ णायव्वो सिद्धिकामेण ॥ २६३ ॥ व्यवहारनिश्वययोः सामान्यलक्षणमाह- जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स । सो ववहारो भणियो विवरीओ णिच्छयो होइ ॥ २६४॥ [ गा० २६२ आगे तत्त्वमें हेय और उपादेयका विचार करते हैं तत्त्व भी हेय और उपादेय होता है । पर द्रव्यरूप तत्त्व हेय है । निज द्रव्यमें भी नयके योगसे हेय और उपादेय जानना चाहिए || २६२ || मिथ्यादृष्टि और सरागी आत्मा नियमसे हेय है और सम्यक्त्वी वीतरागी आत्मा मुमुक्षुके द्वारा ध्यान करनेके योग्य जानना चाहिए ॥ २६३|| - विशेषार्थ - जो ग्रहण करने योग्य होता है उसे उपादेय कहते हैं और जो त्यागने योग्य होता है उसे य कहते हैं । छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नो पदार्थ जिन शासनमें कहे हैं । इनमें से जो पर द्रव्य हैं वे सब हेय हैं और एकमात्र आत्मा ही उपादेय है । किन्तु आत्माके भी तीन प्रकार हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बाह्यद्रव्य शरीर, पुत्र, स्त्री वगैरह में हो जिनकी आत्मबुद्धि है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको बहिरात्मा कहते हैं । तथा जो जीव और शरीरके भेदको जानकर शरीरसे भिन्न आत्मामें ही आत्मबुद्धि रखते हैं उन सम्यग्दृष्टि जीवोंको अन्तरात्मा कहते हैं । अन्तरात्मा के तीन प्रकार हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा है, व्रती श्रावक और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अन्तरात्मा हैं, तथा प्रमादजयी महाव्रती मुनि उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं । और अरहंत तथा सिद्ध परमात्मा हैं । आत्माके इन तीन प्रकारोंमें भी मिथ्यादृष्टि तथा सरागी आत्मा हेय हैं और वीतरागी आत्मा ही उपादेय हैं । अर्थात् शुद्धात्मा ही उपादेय है और अशुद्धात्मा हेय है । अतः जो शुद्धात्माको ही उपादेय मानकर उसीका ध्यान करता है वही शुद्ध दशाको प्राप्त होता है । यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि शुभ और अशुभ दोनों अशुद्धदशामें ही गर्भित हैं । अतः मिथ्यात्वीकी तरह सरागी आत्मा भी हैय है । इस कथन के द्वारा ग्रन्थकारने परद्रव्यको हेय और आत्मद्रव्यको उपादेय बतलाकर भी आत्माकी वीतराग दशाको ही उपादेय बतलाया है, सराग दशाको नहीं । अतः वीतराग अवस्था ही ध्येय है, उसीका सदा मुमुक्षुको ध्यान करना चाहिए । आगे निश्चयनय और व्यवहारनयका सामान्य लक्षण कहते हैं— Jain Education International जो एक वस्तुके धर्मों में कथंचित् भेदका उपचार करता है उसे व्यवहारनय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चयनय होता है || २६४॥ विशेषार्थ - जैसे आगम में वस्तुस्वरूपको जाननेके लिए द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय हैं, वैसे ही अध्यात्ममें आत्माको जाननेके लिए निश्चय और व्यवहारनय हैं । धर्मी वस्तु और उसके धर्म भिन्न-भिन्न नहीं १. खलु भणियताण ज० अ० मु० क० ख० । २. तेषां मध्ये । ३. णियदव्वं ज० अ० क० ख० मु० । ४. हेयादेयं ज० मु० । ५. 'धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । - समयसारटीका अमृतचन्द्र गा० ७ । 'शुद्धद्ध व्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः । ''''अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः । प्रवचनसारटीका अमृतचन्द्र गा० २।९७ । 'गुणगुणिनोरभेदेऽपि भेदोपचार इति सद्भूतव्यवहारलक्षणम् । द्रव्यसं० टी० गा० ३ । 'निश्चयनयोऽभेदविषयः व्यवहारो भेदविषय : ' आलापप० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy