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द्रव्यस्वभावप्रकाशक
[गा० २४२
असद्भुतम्यवहारः
उवयारा उवयारं सच्चासच्चेसु उहयअत्थेसु । सज्जाइइयरमिस्सो उवयरिओ कुणइ ववहारो॥२४२॥ देसवई देसत्थो अत्थवैणिज्जो तहेव जपतो। मे देसं मे दव्वं सच्चासच्चपि उहयत्थं ॥२४३॥ पुत्ताइबंधुवग्गं अहं च मम संपयाइ जप्पंतो। उवयरिसन्भूओ सजाइवव्वेसु णायवो ॥२४४॥ आहरणहेमरयणं वच्छादीया ममेदि जप्पंतो। उवयरियअसब्भूओ.विजाइवव्वेसु णायव्वो ॥२४५॥
आगे असद्भूत व्यवहारनयको कहते हैं
सत्य, असत्य और सत्यासत्य पदार्थों में तथा स्वजातीय, विजातीय और स्वजातिविजातीय पदार्थों में जो एक उपचारके द्वारा दूसरे उपचारका विधान किया जाता है उसे उपचरितासद्भूत व्यवहारनय कहते हैं ॥२४२।।
विशेषार्थ-पहले असद्भूत व्यवहार नयके नव भेद बतलाये हैं। यहां उनके अतिरिक्त तीन भेद बतलाते हैं । असद्भुतका अर्थ ही उपचार है और उसमें भी जब उपचार किया जाता है तो उसे उपचरितासद्भूत व्यवहारनय कहते हैं।
आगे इन भेदोंको उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं
देशका स्वामी कहता है कि यह देश मेरा है, या देशमें स्थित व्यक्ति कहता है कि देश मेरा है या व्यापारी अर्थका व्यापार करते हुए कहता है कि मेरा धन है तो यह सत्य असत्य और सत्यासत्य उपचरितअसद्भूतव्यवहार नय है ।।२४३।।
पुत्र आदि बन्धुवर्गरूप में हूँ या यह सब सम्पदा मेरो है,इस प्रकारका कथन स्वजाति उपचरित असद्भूतव्यवहार नय है ।।२४४॥
विशेषार्थ-'पुत्र आदि बन्धुवर्ग रूप में हूँ' इसमें 'मैं' तो आत्माकी पर्याय और पुत्र आदि परपर्याय हैं । परपर्याय और स्वपर्याय सम्बन्ध कल्पनाके आधारपर उन्हें अपने रूप मानना या अपना कहना उपचरितोपचार रूप है तथा दोनों एकजातीय होनेसे उसे स्वजाति-उपचरित-असद्भूतव्यवहार नय कहते हैं।
__आभरण, सोना, रत्न और वस्त्र आदि मेरे हैं, ऐसा कथन विजातिद्रव्योंमें उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है ॥२४५।।
विशेषार्थ-वस्त्र रत्न आदि विजातीय हैं, क्योंकि जड़ हैं। उनमें आत्मबुद्धि या ममत्वबुद्धि करना 'यह मेरे हैं' यह विजाति उपचरित असद्भूतव्यवहार नय है।
१. 'उपचारः पृथग् नयो नास्तीति न पृथक् कृतः । मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते चोपचारः प्रवर्तते । सोऽपि संबन्धाविनाभावः, संश्लेशः संबन्धः, परिणामपरिणामी संबन्धः, श्रद्धाश्रद्धेयसंबन्धः, ज्ञानज्ञेयसंबन्धः, चारित्रचर्यासंबन्धश्चेत्यादिः सत्यार्थः असत्यार्थः सत्यासत्यार्थश्चेत्यसदभूतव्यवहारनयस्यार्थः'-आलापप० । २. देसरोहो अ०, देसरो मुहो क०, देसलुहो आ०, देसरुहो ज० । ३. अद्धवणिज्जो आ०, अट्ठव-जः । 'देसवई देसत्थो, अत्थवणिज्जो'-नयचक्र ( देवसेन )। ४. उवयारास-अ० ज० मु० ।
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