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________________ १२२ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [ गा० २३८ जो चिय' जीवसहावो णिच्छयदो होइ सव्वजीवाणं । सो चिय भेदुवयारो जाण फुडं होइ ववहारो ॥२३८॥ भेदुवयारं णिच्छय मिच्छादिट्टीण मिच्छरूवं खु। सम्मे सम्मा भणिया तेहि दु बंधो व मोक्खो वा ॥२३९।। स्वरूपकी पहचान इनके लक्षणसे होती है। आत्माका असाधारण लक्षण चैतन्य है। यह लक्षण आत्माके सभी गुण-पर्यायों में व्यापक है। अतः आत्मा चैतन्यस्वरूप है। किन्तु बन्ध तो पुद्गल परमाणुओंका स्कन्ध है । इन दोनोंका भेद प्रतीत न होनेसे कमके उदयसे होनेवाले रागादि भावोंको यह जीव अपना मानता है। यही भूल है। भेदज्ञान होनेपर जो चेतन स्वरूप आत्मा है वह मैं हूँ, शेष भाव मुझसे भिन्न हैं, इस प्रकार जानकर आत्मामें ही सतत रमण करनेसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसके लिए संयम भी धारण करता है, तप भी करता है, किन्तु तद्रूप जो आत्मभाव है वही निश्चयसे मोक्षका कारण है, व्यवहार से जो-जो बाह्य क्रियाएं की जाती है वे भी मोक्षका कारण कही जाती हैं । निश्चयके होनेपर तद्रप व्यवहार होता ही है, तभी वह निश्चम निश्चय है अन्यथा निश्चयाभास है-यह नहीं भूलना चाहिए । निश्चयनयसे जो जीव स्वभाव सब जीवोंमें होता है भेदोपचारसे वह भी व्यवहार है, ऐसा स्पष्ट जानो ॥२३८॥ विशेषार्थ-जीवका जो नैश्चयिक स्वभाव है जो सब जीवोंमें पाया जाता है यदि उसमें भी भेदका उपचार किया जाता है तो वह भी व्यवहारनयको सीमामें ही आता है। अतः निश्चयनयको दृष्टिमें आत्मामें दर्शन, ज्ञान और चारित्रका भी भेद नहीं है। क्योंकि आत्मा अनन्त धर्मोका एक अखण्ड पिण्ड है,किन्तु व्यवहारी मनुष्य धर्मोकी प्ररूपणाके बिना धर्मी आत्माको नहीं समझते। अतः उन्हें समझानेके लिए अभेद रूप वस्तुमें भी धर्मोंका भेद करके ऐसा उपदेश किया जाता है कि आत्मामें दर्शन, ज्ञान और चारित्र है। अतः अभेदमें भेदका उपचार करनेसे यह व्यवहार है। परमार्थसे तो अनन्त गुण-पर्यायोंको पिये हुए प्रत्येक द्रव्य अभेद रूप ही है। मिथ्यादृष्टियोंका भेदरूप उपचार तथा निश्चय मिथ्या होता है और सम्यग्दृष्टियोंका सम्यक् होता है । उन्हींसे बन्ध अथवा मोक्ष होता है ॥२३९।। विशेषार्थ-जैसे सम्यग्दृष्टिका ज्ञान सच्चा और मिथ्यादृष्टिका ज्ञान मिथ्या होता है, वैसे ही मिथ्या दृष्टिका व्यवहार और निश्चयनय मिथ्या होता है और सम्यग्दृष्टिका सम्यक् होता है। साधारण तौरसे व्यवहारनयको असत्यार्थ और निश्चयनयको सत्यार्थ कहा है। किन्तु मिथ्याष्टिका सत्यार्थ निश्चयनय भी सम्यक नहीं होता और सम्यग्दृष्टिका असत्यार्थ व्यवहारनय भी सम्यक् होता है। इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टिकी जब दृष्टि ही मिथ्या है तो वह दृष्टि व्यवहार रूप हो या निश्चयरूप मिथ्या ही कही जायेगी और वह किसी एक नयके पक्षमें गिर कर अपने मिथ्यात्वका परिचय दिये बिना नहीं रहेगी। किन्त सम्यग्दृष्टिकी दृष्टि-व्यवहाररूप भी और निश्चयरूप भी सम्यक् होनेसे वह जानता तो दोनों नयोंको है, किन्त दोनों में से किसी भी एक नयके पक्षको लेकर नहीं बैठता क्योंकि एक नयका सर्वथा पक्ष ग्रहण करनेसे मिथ्यात्वसे मिला हुआ पक्षका राग होता है। तथा प्रयोजनवश एक नयको प्रधान करके ग्रहण करनेपर चारित्रमोहके पक्षसे राग होता है। किन्तु जब नयका पक्ष छोड़कर वस्तु स्वरूपको केवल जानता ही है तो उस समय वह वीतरागके समान होता है। १. २. विय अ० क० ख० ज० । ३. भेदुवयारा अ० क• ख० म० ज० । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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