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________________ ११६ द्रव्यस्वभावप्रकाशक [गा० २१९ गुणपज्जयदोदव्वे कारगसम्भावदो य दम्वेसु । सण्णाईहिय भेयं कुणइ सन्भूयसुद्धियरो ॥२१९॥ दव्वाणं खु पएसा बहुगा ववहारदो य ऍक्केण । अण्णेण य णिच्छयदो भणिया का तत्थ खलु हवे जुत्ती ॥२२०॥ सदुच्यते व्यवहाराश्रयाद्यश्च संख्यातीतप्रदेशवान् । अभिन्नात्मैकदेशित्वादेकदेशोऽपि निश्चयात् ।।२।। पमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥२॥ ऍक्कपएसे दव्वं णिच्छयदो भेयकप्पणारहिए। सन्भूएणं बहुगा तस्स य ते भेयकप्पणासहिए ॥२२१।। शुद्धसद्भूत व्यवहार नयका स्वरूप कहते हैं शुद्धसद्भूत व्यवहारनय गुण और पर्यायके द्वारा द्रव्यमें तथा कारक भेदसे द्रव्योंमें संज्ञा आदिके द्वारा भेद करता है ॥२१९॥ विशेषार्थ-सद्भूत व्यवहारनयके दो भेद हैं-शुद्धसद्भूत व्यवहारनय और अशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय । सद्भूत व्यवहारनयका विषय एक ही द्रव्य होता है। शुद्ध गुण और शुद्ध गुणीमें, शुद्धपर्याय और शुद्ध पर्यायीमें भेद करनेवाला शुद्धसद्भूत व्यवहारनय है; जैसे जीवके केवलज्ञानादि गुण हैं । इसे अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय भी कहते हैं। और अशुद्धगुण अशुद्धगुणीमें तथा अशुद्धपर्याय और अशुद्धपर्यायीमें भेद करनेवाला अशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय है । जैसे जीवके मतिज्ञानादिगुण हैं । इसे उपचरित सद्भूतव्यवहारनय भी कहते हैं। कोई शंका करता है एक आचार्यने व्यवहारनयसे द्रव्योंके बहुत प्रदेश कहे हैं। अन्य आचार्यने निश्चयनयसे द्रव्यके बहुत प्रदेश कहे हैं। इसमें क्या युक्ति है १।२२०॥ शंकाकार अपने कथन के समर्थन में दो प्रमाण उपस्थित करता है कहा भी है-व्यवहारनयके आश्रयसे जो असंख्यात प्रदेशी है वही निश्चयनयसे अभिन्न एक आत्मरूप होने से एक प्रदेशी भी है । समुद्घात को छोड़कर व्यवहारनय से आत्मा संकोच और विस्तार के कारण अपने छोटे या बड़े शरीर के बराबर है और निश्चयनयसे असंख्यात प्रदेशी है। ग्रन्थकार इसका समाधान करते हैं भेदकल्पना रहित निश्चयनयसे द्रव्य एक प्रदेशो है और भेदकल्पना सहित सद्भूत व्यवहारनयसे बहुत प्रदेशी है ।।२२१॥ विशेषार्थ-जैनसिद्धान्तमें विविधनयोंके द्वारा वस्तु स्वरूपका कथन किया गया है। यदि नय दृष्टिको न समझा जावे तो उस कथनमें परस्पर विरोध प्रतीत हुए बिना नहीं रह सकता। इसका उदाहरण शंकाकारको उक्त शंका ही है कि किसी आचार्यने व्यवहारनयसे जीवके बहुत प्रदेश कहे हैं और किसी आचार्यने निश्चयनसे जीवके बहुत प्रदेश कहे हैं। इसमें क्या युक्ति है?क्यों उन्होंने ऐसा कहा है ? ग्रन्थकार उत्तर देते हैं कि यद्यपि जीव द्रव्य एक और अखण्ड है । किन्तु वह बहुप्रदेशी है, तभी तो उसे छोटा या १. गुणगुणिपज्जयदव्वे अ० क० ख० मु० ज० । नयचक ( देवसेन ) गा० ४६ । २. तो गाउणं भेयं ख० मु० । तंप्पाऊणं भेयं ज० । ३. द्रव्यसंग्रह गा...। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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