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नयचक्र
अर्थात् नयों का कथन नयचक्र से जानना। आचार्य वादिराज ने अपने 'न्यायविनिश्चयविवरण' में इस कारिकांश का व्याख्यान करते हुए लिखा है-'नयचक्रतः तन्नामधेयचिरन्तनशास्त्रात्' । अर्थात् नयचक्र नामक प्राचीन शास्त्र से जानना चाहिए। आ. अकलंकदेव ने अपनी ‘अष्टशती' में प्रमाण, नय और दुर्नय का स्वरूप बतलानेवाला एक श्लोक उद्धृत किया है। यह श्लोक 'आप्तमीमांसा' श्लो. १०६ में प्रतिपादित लक्षण के आधार पर उद्धृत किया गया है। तथा चोक्तम्
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं, तदंशधीः।
नयो धर्मान्तरापेक्षो दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥ -अनेकात्मक अर्थ के ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। उसके एक अंश के धर्मान्तरसापेक्ष ज्ञान को नय कहते हैं। और धर्मान्तर का निराकरण करनेवाला एक अंश का ज्ञान दुर्नय है।
एक ही श्लोक द्वारा बड़े सरल और संक्षिप्त शब्दों में प्रमाणादि का स्वरूप बतलानेवाला यह श्लोक किस ग्रन्थ का है, यह अज्ञात है। किन्तु अकलंकदेव के द्वारा उद्धृत होने से उसकी प्राचीनता तो स्पष्ट ही है। उसकी महत्ता भी स्पष्ट है। अवश्य ही यह किसी प्राचीन आचार्य की कृति है, और जिस कृति का यह अंश है वह अवश्य ही महत्त्वपूर्ण होनी चाहिए। इसी तरह अकलंकदेव से लगभग दो शताब्दी पूर्व आचार्य पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि' (१६) में एक वाक्य उद्धृत किया है-'सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः।' यह वाक्य भी महत्त्वपूर्ण है और प्राचीनतर भी है। इससे पता चलता है कि प्रमाण और नय की चर्चा ही प्राचीन नहीं है, किन्तु उस पर ग्रन्थ-रचना भी प्राचीन समय से होती आयी है।
अकलंकदेव के पश्चात् आचार्य विद्यानन्द ने अपने 'श्लोकवार्तिक' में प्रथम अध्याय के छठे तथा अन्तिम सूत्र की अपनी टीका में नय सामान्य तथा उसके भेदों का अच्छा विवेचन किया है जो उनसे पूर्व की रचनाओं में उपलब्ध नहीं होता। उसके अन्त में विद्यानन्द ने भी नयों के विशेष कथन के लिए 'नयचक्र' से विचार करने की प्रेरणा की है। यथा
संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्याताः सूत्रसूचिताः। तद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिन्त्या नयचक्रतः ॥१०२॥
'नयचक्र' नामक ग्रन्थ
सन् १६२० में माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला, बम्बई से उसके सोलहवें पुष्प के रूप में 'नयचक्रादिसंग्रह' नामक एक संग्रहग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। उसके प्रारम्भ में देवसेन कृत लघुनयचक्र है और उसके बाद जो ग्रन्थ है उसकी उत्थानिका में उसका नाम 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' दिया है। स्व. प्रेमीजी ने अपने 'देवसेन का नयचक्र' शीर्षक निबन्ध में इसका उल्लेख 'बृहन्नयचक्र' नाम से किया है क्योंकि जहाँ पहले में केवल ८७ गाथाएँ हैं वहाँ दूसरे में चार सौ से भी अधिक गाथाएँ हैं। प्रेमीजी ने अपने लेख में इस आशंका को उठाया है कि क्या विद्यानन्द के द्वारा उल्लिखित नयचक्र यही है? प्रेमीजी को सम्भवतया उस समय यह ज्ञात नहीं हो सका था कि विद्यानन्द से भी पहले अकलंकदेव ने नयचक्र का निर्देश किया है। यतः उक्त नयचक्र विक्रम की दसवीं शताब्दी के लगभग तथा उसके बाद में रचे गये हैं। अतः विद्यानन्द ही नहीं, अकलंकदेव के भी द्वारा स्मृत नयचक्र नामक ग्रन्थ कोई अन्य ही होना चाहिए।
दिगम्बर परम्परा में तो 'नयचक्र' नाम के किसी अन्य प्राचीन ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य मल्लवादी रचित 'नयचक्र' नामक ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ पर सिंहसरिगणि क्षमाश्रमण की अति पाण्डित्यपूर्ण विस्तृत टीका उपलब्ध है। उसी पर से मूल ग्रन्थ का उद्धार करके टीका के साथ मुनि श्री जम्बूविजय ने बड़े परिश्रम से उसका सम्पादन किया है और उसका प्रथम भाग श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित हो चुका है। किन्तु उसकी पद्धति भिन्न है। ग्रन्थ का नाम है-'द्वादशार नयचक्र' । जैसे गाड़ी के चक्का में अर होते हैं, वैसे ही उसमें बारह अर हैं-१. विधि, २. विधिविधि, ३. विधिउभय, ४. विधिनियम, ५. उभय, ६. उभयविधि, ७. उभयउभय, ८. उभयनियम, ६. नियम, १०. नियमविधिः, ११. नियमोभय और १२. नियमनियम। इनमें से प्रथम
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