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नयचक्र
अस्ति-नास्तिरूप और नित्य-अनित्यरूप वस्तु को ज्ञाता किसी एक धर्म की मुख्यता से ग्रहण करता है। ज्ञाता की इस दृष्टि या अभिप्राय को ही नय कहते हैं।
नय
नय प्रमाण का ही भेद है। फिर भी उसे प्रमाण से भिन्न माना गया है, क्योंकि वह प्रमाण से गृहीत
एकदेश को ग्रहण करता है। जैसे समुद्र का अंश न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही है; किन्तु उसका एक अंश है, उसी तरह प्रमाण का अंश नय न प्रमाण है और न अप्रमाण ही है। कहा है
नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयतीति नयः । -जो वस्तु को नाना स्वभावों से हटाकर एक स्वभाव में स्थापित करता है, उसे नय कहते हैं। अर्थात् अनेक गुणपर्यायात्मक द्रव्य को एक धर्म की मुख्यता से निश्चय करानेवाला नय है।
नय की उपयोगिता
अन्य सभी दर्शन एकान्तवादी हैं। वे वस्तु को एक धर्मात्मक ही मानते हैं, विरुद्ध उभयधर्मात्मक नहीं मानते। इसीलिए उनमें प्रमाण के सिवाय अंशग्राही रूप से नय की कोई चर्चा ही नहीं है, किन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन का काम नय के बिना चल नहीं सकता, क्योंकि अनेकान्त का मूल नय है ‘णयमूलो अणेयंतो' । नय का विषय एकान्त है। इसलिए नय को एकान्त भी कहते हैं। और एकान्तों के समूह का नाम अनेकान्त है। अतः एकान्त के बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है। अतः जो वस्तु प्रमाण की दृष्टि में अनेकान्तरूप है, वही वस्तु नय की दृष्टि में एकान्तस्वरूप है। यदि एकान्त न हो, तो जैसे एक के बिना अनेक नहीं, वैसे ही एकान्त के बिना अनेकान्त नहीं। अतः जब सभी अनेकान्तरूप हैं, तो अनेकान्त एकान्तरूप कैसे हो सकता है? अनेकान्त में अनेकान्त को घटित करते हुए समन्तभद्र ने कहा है
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः। अनेकान्तः प्रमाणाते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥
-बृ. स्वयंभू., श्लोक १०३ -प्रमाण और नय के द्वारा अनेकान्त भी अनेकान्तरूप है। प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त है और विवक्षित नय की अपेक्षा एकान्त है। अतः नय के बिना अनेकान्त सम्भव नहीं है।
दसरे. वस्त द्रव्यपर्यायात्मक है। उसके द्रव्यांश को जाननेवाला द्रव्यार्थिकनय है और पर्यायांश को जाननेवाला पर्यायार्थिकनय है। इस तरह मूलनय दो ही हैं। इन्हें ही अध्यात्म में निश्चयनय और व्यवहारनय कहते हैं। निश्चयनय स्वाश्रित होता है। वह वस्तु के स्वाभाविक रूप को ग्रहण करता है। इसी से उसे सत्यार्थ कहते हैं। व्यवहारनय पराश्रित होता है। पर के आश्रय से होनेवाले औपाधिक भावों को वस्तुरूप से ग्रहण करता है। यतः औपाधिकभाव आगन्तुक होने से शाश्वत नहीं है, इसीलिए व्यवहारनय को असत्यार्थ कहा जाता है। संसारी जीव की संसार-दशा व्यवहारनय का विषय है। और संसार-दशा में भी जीव के शाश्वत स्वभाव को ग्रहण करनेवाला निश्चयनय है। उसके अवलम्बन के बिना संसारी जीव को अपने यथार्थ स्वरूप की प्रतीति नहीं हो सकती।
आचार्य अमृतचन्द्र ने अपने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के प्रारम्भ में लिखा है कि व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता ही मुख्य कथन और उपचार कथन के द्वारा शिष्यों के दुर्निवार अज्ञान भाव को दूर करने में समर्थ होने से जगत् में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं।
इसका अभिप्राय यह है कि उपदेशदाता को व्यवहार और निश्चय का ज्ञाता अवश्य होना चाहिए। जीवों का अनादि अज्ञान मुख्य कथन और उपचार कथन के द्वारा ही दूर हो सकता है। मुख्य कथन निश्चयनय के अधीन है, 'क्योंकि निश्चयनय स्वाश्रित है अर्थात् द्रव्य के अस्तित्व में जो भाव रहते हैं, उस द्रव्य में उन्हीं भावों
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