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________________ -१३८ ] उक्तं च नयचक्र एमएसे खलु इयरपएसा य पंच णिद्दिट्ठा । ताणं कारणकज्जे उहय सरूवेण णायव्वं ॥ पुग्गलमज्झत्थोयं कालाणू मुक्खकारणं होई । समओ व जह्मा पुग्गलमुत्तो ण मोक्खो हु ॥१३७॥ 'समयावलि उस्सासो थोवो लव णालिया मुहुत्त दिणं । पक्खं च मास वरिसं जाण इमं सयल ववहारं ॥ १३८ ॥ विशेषार्थ - वर्तना निश्चयकालका लक्षण है और परिणाम व्यवहारकालका लक्षण है । अपनी जातिको न छोड़ते हुए द्रव्यमें जो परिवर्तन होता है - पूर्वपर्यायकी निवृत्ति और उत्तरपर्यायकी उत्पत्ति होती है उसे परिणाम कहते हैं । निश्चयकाल इस परिणाममें हेतु होता है । वैसे धर्मद्रव्य गति में और अधर्मद्रव्य स्थिति में हेतु होता है । परिणमन शक्ति तो द्रव्योंमें स्वाभाविक है, काल उसमें निमित्तमात्र होता हैं। उसका आश्रय पाकर सब द्रव्य अपनी पर्यायरूपसे स्वतः परिणमन करते हैं। एक पर्याय शुद्धनयसे एक क्षण तक रहती है । यह सब उपचरित या व्यवहारकाल है। व्यवहार, विकल्प, भेद, पर्याय ये सब शब्द एकार्थक हैं । व्यवहारके अवस्थानकालको व्यवहारकाल कहते हैं । समय, घड़ी, घण्टा, मिनिट, दिन-रात यह सब व्यवहारकालके ही भेद हैं । आगे ग्रन्थकार प्रमाणरूप से एक गाथा उद्धृत करते हैं एक प्रदेशमें शेष पाँचों द्रव्योंके प्रदेश कहे हैं अर्थात् धर्मद्रव्य अधमंद्रव्य, जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य और कालद्रव्य के प्रदेश एक ही आकाशप्रदेशके साथ रहते हैं । सब आपस में हिले-मिले होनेपर भी अपना-अपना स्वभाव नहीं छोड़ते। उनका कारण और कार्य दोनों ही अपने-अपने स्वभाव के अनुसार ही जानना चाहिए । जिसका जो कार्य है वह वही कार्य करता है और उसमें वही कारण होता है, अन्य द्रव्य नहीं । ८१ पुद्गलोंके मध्य में स्थित कालाणु मुख्य कारण है, क्योंकि कालद्रव्य अमूर्तिक है । और पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है, इसलिए वह मुख्य कारण नहीं है ॥१३७॥ विशेषार्थ - पुद्गल तो समस्त लोकमें भरे हुए हैं । उन्हींके बीच में कालाणु भी अवस्थित हैं । किन्तु परिणमनमें मुख्य कारण कालद्रव्य है, पुद्गल द्रव्य नहीं । क्योंकि पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है और कालद्रव्यअमूर्तिक है । जो द्रव्य केवल सहायकके रूपमें माने गये हैं वे सभी अमूर्तिक हैं; जैसे - आकाश, धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य है, वैसे ही काल भी है । आगे व्यवहारकालको कहते हैं -- समय, आवली, उच्छ्वास, लव, नाली, मुहूर्त, दिन, पक्ष, मास, वर्ष, यह सब व्यवहारकाल है ।। १३८ || Jain Education International विशेषार्थ-a - व्यवहारकालका सबसे छोटा अंश समय है । असंख्यात समयोंकी एक आवली होती है । संख्यात आवलीका एक उच्छ्वास होता है । सात उच्छ्वासका एक स्तोक होता है। सात स्तोकका एक लव होता है । साढ़े अड़तीस लवकी एक नाली होती है । दो नालीका एक मुहूर्त होता है । ३० मुहूर्तका एक दिन-रात होता है । पन्द्रह दिन-रातका एक पक्ष होता है। दो पक्षका एक मास होता । १२ मासका वर्ष होता है, वह सब व्यवहारकाल है । इस व्यवहारकालका मूल समय है । अतः आगे समयका परिमाण बतलाते हैं १. 'आवलि असं समया संखेज्जावलिसमूहमुस्सासो । सत्तुस्सासा थोवो सत्तत्थोवो लया भणियो || ५७३ ॥ अट्ठत्तीसद्धलवा नाली नालिया मुहुत्तं तु । एगसमयेण हीणं भिण्णमुहुत्तं तदो सेसं ॥ ५७४ | - गो० जीव० । ११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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