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________________ -११९] नयचक्र निरुपयोगिकटाक्षमुच्छिद्य जीवस्योपयोगमाह उवओगमआ जीवा उवओगो णाणदसणो भणिओ। णाणं अटुपयारं चउभेयं दंसणं णेयं ॥११८॥ मूतैकान्तनिषेधार्थ स्यादमूर्तत्वमाह रूवरसगंधफासा सद्दवियप्पा वि णत्थि जीवस्स। णो संठाणं किरिया तेण अमुत्तो हवे जीवो ॥११९॥ अनुपयोगी व्यंग्यका खण्डनकर जीवके उपयोगका कथन करते हैं - सभी जीव उपयोगमय हैं। उपयोगके दो भेद कहे हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं और दर्शनोपयोगके चार भेद जानना चाहिए॥११८॥ विशेषार्थ-आत्माके चैतन्य-अनुविधायी या चैतन्यके साथ होनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं । उपयोगके भी दो भेद है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। विशेषका ग्राही ज्ञान है और सामान्यका ग्राही दर्शन है । उपयोग सर्वदा जीवसे अभिन्न हो होता है, क्योंकि जीव और उपयोगकी एक ही सत्ता है। न उपयोगके बिना जीवका अस्तित्व है और न जीवके बिना उपयोगका अस्तित्व है। ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान । आत्मा वास्तव में सर्वात्मप्रदेशव्यापी विशुद्ध ज्ञानसामान्य स्वरूप है, किन्तु वह अनादिकालसे ज्ञानावरण कर्मसे आच्छादित है। ऐसी स्थितिमें मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे और इन्द्रिय तथा मनकी सहायतासे मूर्त और अमूर्तद्रव्योंके एक अंशको विशेषरूपसे जाननेवाले ज्ञानको मतिज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे और मनकी सहायतासे मूर्त और अमूर्तद्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको विशेषरूपसे जाननेवाले ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे मूर्तद्रव्यकी कुछ पर्यायोंको विशेषरूपसे जाननेवाले ज्ञानको अवधिज्ञान कहते हैं । मनःपर्ययज्ञानावरणके क्षयोपशमसे परमनोगत मूर्तद्रव्यकी कुछ पर्यायोंको प्रत्यक्ष जाननेवाले ज्ञानको मनःपर्ययज्ञान कहते हैं। समस्त ज्ञानावरण के अत्यन्त क्षयसे केवल आत्मासे ही मूर्त-अमूर्तद्रव्योंकी समस्त पर्यायोंको विशेषरूपसे जाननेवाले ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं। मिथ्यात्वके उदयमें मतिज्ञान ही कुमतिज्ञान, श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ही विभंगज्ञान होता है। दर्शनोपयोगके चार भेद है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । आत्मा वास्तव में समस्त आत्मप्रदेशोंमें व्यापक, विशुद्ध दर्शनसामान्यस्वरूप है। किन्तु वह अनादिकालसे दर्शनावरणकर्मसे आच्छादित है। अतः चक्षुदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमसे और चक्षु इन्द्रियकी सहायतासे मूर्तद्रव्यको कुछ पर्यायोंको जो सामान्यरूपसे जानता है, वह चक्षुदर्शन है। अचक्षुदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमसे और चक्षुके सिवाय शेष चार इन्द्रिय और मनकी सहायतासे जो मूर्त और अमूर्तद्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको सामान्यरूपसे जानता है, वह अचक्षुदर्शन है। अधिदर्शनावरणकर्मके क्षयोपशमसे मूर्तद्रव्यको कुछ पर्यायोंको जो सामान्यरूपसे जानता है, वह अवधिदर्शन है। और जो समस्त दर्शनावरणका अत्यन्त क्षय होनेपर केवल आत्मासे ही समस्त मर्त-अमर्तद्रव्योंको सामान्यरूपसे जानता है,वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। मूर्तेकान्तका निषेध करने के लिए जीवको कथंचित् अमूर्तिक कहते हैं जीवमें न रूप है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है, न शब्दके विकल्प हैं, न आकार है, न क्रिया है इस कारणसे जीव अमूर्तिक है ।।११९।। विशेषार्थ-जिसमें रस, रूप, गन्ध, स्पर्श गुण पाये जाते हैं उसे मूर्तिक कहते हैं । जीवमें इनमें से कोई भी गुण नहीं है, ये चारों तो पुद्गलद्रव्य के विशेष गुण हैं, इसलिए पुद्गलद्रव्य मूर्तिक है। किन्तु जीव १. निरुपयोगिनं कटाक्षरूपयोगमाह ज.। २. -मओ जीवो अ० क० ख० मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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