SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ११० ] नयचक्र Jain Education International यहाँ उनमें से जीवद्रव्यकी चर्चाका प्रसंग है, अतः उसीका कथन करना उचित है। जीव द्रव्यके और गुण पर्याय प्रसिद्ध हैं । जीवका मुख्य गुण चेतना है । वह चेतना शुद्ध और अशुद्ध के भेदसे दो प्रकारकी है। शुद्ध चेतना तो ज्ञानकी अनुभूतिरूप है और अशुद्ध चेतना कर्म और कर्मफलको अनुभूतिरूप है । अथवा चैतन्यका अनुसरण करनेवाले परिणामको उपयोग कहते हैं । उपयोग जीवका लक्षण है उसके दो भेद हैंज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोगके भेदोंमें से एक केवलज्ञान ही शुद्ध होनेसे सम्पूर्ण है । निर्विकल्परूप दर्शनोपयोग के भेदों में से एक केवलदर्शन ही शुद्ध होनेसे सकल है । शेष सब अशुद्ध होनेसे विकल है । इसी तरह अगुरुलघुगुणकी हानि - वृद्धिसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायें जीवकी शुद्ध पर्यायें हैं और परद्रव्यके सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाली देव, नारकी, तियंच, मनुष्य पर्यायें अशुद्ध पर्यायें हैं । जब जीवकी मनुष्य पर्याय नष्ट होकर देवपर्याय उत्पन्न होती है, तो उसमें वर्तमान जीवपना न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । अर्थात् ऐसा नहीं है कि मनुष्यस्वरूपसे विनष्ट होनेपर जीवत्वरूपसे भी नाश होता हो और देवत्वरूपसे उत्पत्ति होने पर जीवत्वरूपसे भी उत्पन्न होता हो। इस तरह सत्का विनाश और असत् के उत्पादके बिना ही परिणमन होता है और कथंचित् उत्पाद व्ययवाला होते हुए भी द्रव्य सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट ही रहता है । स्पष्ट रूप इस प्रकार है - जो द्रव्य पूर्वपर्यायके वियोगसे और उत्तर पर्यायके संयोगसे होनेवाली अवस्थाओं को अपनाने के कारण विनष्ट और उत्पन्न प्रतीत होता है, वही द्रव्य उन दोनों अवस्थाओं में रहनेवाले प्रतिनियत स्वभावसे— जो स्वभाव उन दोनों अवस्थाओं में उस द्रव्यके एक रूप होने में कारण है—अविनष्ट और अनुत्पन्न प्रतीत होता है । उस द्रव्यकी पर्यायें तो उत्पाद, विनाश धर्मवाली कही जाती हैं, क्योंकि पूर्व-पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर-उत्तर पर्यायका उत्पाद होता रहता है । और वे पर्याय वस्तुरूपसे, द्रव्यसे अभिन्न ही कही गयी हैं । अतः पर्यायोंके साथ एक वस्तुपनेके कारण उत्पन्न और विनष्ट होता हुआ भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न और अविनष्ट ही देखना चाहिए। देव-मनुष्य आदि पर्यायें तो क्रमवर्ती हैं। जिस पर्याय का स्वसमय उपस्थित होता है वह उत्पन्न होती है और जिस पर्यायका स्वसमय बीतता है वह नष्ट होती है । यदि जो जीव मरता है वही उत्पन्न होता है या जो उत्पन्न होता है वही मरता है तो ऐसा माननेपर सत्का विनाश और असत्का उत्पाद नहीं होता, ऐसा निश्चित होता है । तथा जो कहा जाता है कि देव उत्पन्न हुआ और मनुष्य मरा, सो इसमें भी कोई विरोध नहीं है, क्योंकि देव पर्याय और मनुष्य पर्यायको रचनेवाला जो देवगति और मनुष्यगति नामकर्म है उसका काल उतना ही है । अतः मनुष्यत्व आदि पर्यायों का अपना-अपना काल प्रमाण मर्यादित है । एक पर्याय अन्य पर्यायरूप नहीं हो सकती । अतः पर्यायें अपने-अपने स्थानोंमें भावरूप और पर पर्याय स्थानों में अभावरूप होती हैं । किन्तु जीवद्रव्य तो सब पर्यायोंमें अनुस्यूत होनेसे भावरूप भी हैं, और मनुष्यत्व पर्याय रूपसे देवपर्यायमें नहीं है, इसलिए अभावरूप भी है । सारांश यह है कि आगम में द्रव्यको सर्वदा अविनष्ट और अनुत्पन्न कहा है। अतः जीवद्रव्यको द्रव्यरूपसे नित्य कहा है । वह देवादि पर्यायरूपसे उत्पन्न होता है, इसलिए भाव ( उत्पाद ) का कर्ता कहा है । मनुष्यादि पर्यायरूपसे नष्ट होता है, इसलिए उसीको अभाव ( व्यय ) का कर्ता कहा है । सत् देवादि पर्यायका नाश करता है, इसीलिए उशीको भावाभाव ( सत्के विनाश ) का कर्ता कहा है। और फिरसे असत् मनुष्यादि पर्यायका उत्पाद करता है, इसलिए उसीको अभाव भाव ( असत् के उत्पाद ) का कर्ता कहा है। इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्य और पर्याय मेंसे एककी गौणता और अन्यकी मुख्यतासे कथन किया जाता है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- जब पर्यायको गौणता और द्रव्यको मुख्यता विवक्षित होती है, तब जीव न उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है । और ऐसा होनेसे न सत्पर्यायका विनाश होता है और न असत्पर्यायका उत्पाद होता है । जब द्रव्यकी गोणता और पर्यायकी मुख्यता विवक्षित होती है तब वह उत्पन्न होता और नष्ट होता है और ऐसा होनेसे जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसी सत्पर्यायका नाश करता है और जिसका स्वकाल उपस्थित हुआ हैं ऐसी असत् पर्यायको उत्पन्न करता है । यह सब अनेकान्तवाद के प्रसादसे सुलभ है । इसमें कोई विरोध नहीं है ॥ ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy