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नयचक्र
प्रारम्भके १२ गुणस्थानोंकी रचना की गयो है। जिस जीवके मिथ्यात्व कर्मका उदय होता है, वह पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवाला होता है । जो जीव मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्त्व मोहनीय
और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियोंका क्षय, उपशम या क्षयोपशम करके सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है, वह चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवाला होता है। उपशम सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उसका काल पूरा होनेसे पहले जिस जीवके अनन्तानुबन्धी कषायका उदय आ जाता है, वह सम्यक्त्वसे गिरकर दूसरे सोसादन गुणस्थानवाला हो जाता है। जिसके सम्यक्-मिथ्यात्व प्रकृतिका उदय होता है वह तीसरे मिश्र गुणस्थानवर्ती होता है। सम्यक्त्व प्राप्त कर लेनेके पश्चात् जो जीव श्रावकके व्रत धारण कर लेता है,वह देशविरत नाम पंचम गुणस्थानवर्ती होता है, जो महाव्रत धारण करके मुनि हो जाता है वह प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत नामक छठे सात गुणस्थानवाला होता है। सातवें गुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़ने के लिए दो श्रेणियां है-उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि । उपशम श्रेणिपर चढ़नेवाला मोहनीय कर्मका उपशम ( दबाना) करता जाता है और क्षपकश्रेणिवाला मोहनीयकर्मका क्षय ( नाश ) करता जाता है। आठवां, नौवां और दसवां गुणस्थान दोनों श्रेणियोंमें हैं। उपशम श्रेणिवाला दसवें गुणस्थानसे ग्यारहवें उपशान्त मोह गुणस्थान में जाता है। वहाँ उसका दबा हुआ मोह उभर आता है, वह नीचे गिर जाता है । क्षपकश्रेणिवाला मोहका क्षय करते हुए दसवें गुणस्थानसे क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानमें जाता है और वहां शेष घातीकर्मों को नष्ट करके केवली हो जाता है। केवलीके अन्तिम दो गुणस्थान सयोगकेवली और अयोगकेवली नामक होते हैं। चौदहवें गुणस्थानसे मोक्ष हो जाता है और मुक्त जीवके कोई गणस्थान नहीं होता। इस तरह संसारी जीवोंके आत्मिक उत्थान और पतनक चौदह गुणस्थानों में बांटा गया है। जीवके एकेन्द्रिय,दोइन्द्रिय,तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त आदि भेदोंको लेकर १४ जीवसमासोंमें बाँटा गया है। इन जीवसमासोंके विस्तारसे बहुत भेद होते हैं । जैसे एकेन्द्रिय जीवके पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तैजस्कायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोदिया, इतरनिगोदियाके भेदसे छह भेद हैं। ये बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं। तथा प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवके सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठितके भेदसे दो भेद हैं। इस तरह एकेन्द्रिय जीवके १४ भेद है । ये पर्याप्तक, निर्वत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्त कके भेदसे तीन-तीन प्रकारके होते हैं। अतः एकेन्द्रिय जीवके ४२ जीवसमास होते हैं । दोइन्द्रिय,तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीव भी पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तकके भेदसे तीन-तीन प्रकारके होते हैं। अतः इनके नौ जीवसमास होते हैं। इस तरह एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियके ५१ जीवसमास होते हैं। पंचेन्द्रिय जीवके ४७ जीवसमास होते हैं। तिर्यंचपंचेन्द्रिय गर्भज भी होते हैं और सम्मूर्छन भी होते हे जो माताके गर्भसे पैदा होते हैं वे गर्भज कहलाते हैं और जो बाह्य सामग्रीसे ही पैदा होते हैं वे सम्मर्छन कहलाते हैं। तथा ये जलचर-मछली वगैरह, थलचर-गाय, बैल वगैरह और नभचर-पक्षी वगैरहके भेदसे तीन प्रकारके होते हैं। ये तीनों सैनी भी होते हैं और असैनी (जिनके मन नहीं होता) भी होते हैं। इनमेंसे जो गर्भज होते हैं वे पर्याप्तक और निवृत्यपर्याप्त क ही होते हैं, किन्तु सम्मर्छन जीव पर्याप्तक निवृत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं । अतः गर्भ जन्मवालोंके ६ x २ = १२ भेद होते हैं और सम्मूर्च्छन जन्मवालोंके ६ ४ ३ = १८ भेद होते हैं। इस तरह कर्मभूमिज तिर्यंच पंचेन्द्रियोंके तोस भेद होते हैं । भोगभूमिके तिर्यंच पंचेन्द्रिय गर्भज ही होते हैं तथा थलचर और नभचर ही होते हैं और वे पर्याप्तक
और निवृत्यपर्याप्तक ही होते हैं। इस तरह उनके केवल चार भेद होनेसे तिर्यंच पंचेन्द्रियके ३४ जीवसमास होते हैं।
मनुष्यके चार प्रकार हैं-आर्य, म्लेच्छ, भोगभूमिया और कुभोगभूमिया । इनमें से आर्य मनुष्य पर्याप्तक निवत्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं। शेष तीन पर्याप्तक निवृत्यपर्याप्तक ही होते हैं।अतः मनुष्योंके ३+२+२+ २ = नौ जीवसमास होते हैं। देव और नारकी पर्याप्तक निवृत्यपर्याप्तक ही होते हैं । अतः उनके ४ जीव समास होते हैं। इस तरह ४२+९+ ३४ +९+४=९८ जीवसमास विस्तारसे
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