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________________ -९३ ] नयचक्र तेपु पर्यायेषु जीवाः पञ्चावस्थासु चतुर्विधदुःखेन दुःखिता भवन्तीत्याह पंचावत्थजुओ सो चउविहदुक्खेण दुक्खिओ 'य तहा। ताव कालं जीओ जाव ण भावेइ परमसब्भावं ॥१०॥ ता: पञ्चावस्था आह पंचावत्था देहे कम्मादो होइ सयलजीवाणं । उप्पत्ती बालत्तं जोवण बुड्ढंत होइ तह मरणं ॥११॥ सहजं खुधाइजादं णइमित्तं सोदवादमादीहि । रोगादिआ य देहज अणि?जोए तु माणसियं ॥१२॥ विभावस्वभावफलमाह विभावादो बंधो मोक्खो सम्भावभावणालोणो। तं खुणएणं णच्चा पच्छा आराहओ जोई ॥१३॥ उन पर्यायोंमें जीव पांच अवस्थाओंसे चारों प्रकारके दुःखसे दुःखित होते हैं ऐसा कहते हैं जब तक जीव अपने परमस्वभावको भावना नहीं करता तब तक पांच अवस्थाओंसे युक्त होता हुआ चार प्रकारके दुःखोंसे दुखी रहता है ॥२०॥ उन पांच अवस्थाओंको कहते हैं उत्पत्ति, बालपना, युवावस्था, बुढ़ापा और मरण ये पाँच अवस्थाएँ सब जीवोंके शरीरमें कर्मके उदयसे होती हैं ।।११।। विशेषार्थ-संसारी जीव अनादिकालसे इस संसारमें भटक रहा है। इसका मूल कारण है उसका अज्ञान । अज्ञानवश आजतक उसने यही जाननेका प्रयत्न नहीं किया कि मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है ? कर्मके योगसे जब यह जीव नया जन्म धारण करता है तो मानता है यह मेरा जन्म हुआ। फिर वाल्यावस्थामें अपनेको बालक, युवावस्थामें युवा, वृद्धावस्थामें वृद्ध मानता है। और मृत्यु होनेपर अपना मरण मानता है । किन्तु ये पांचों अवस्थाएँ तो शरीराश्रित हैं, नये शरीर धारण करनेको जन्म कहा जाता है, शरीरकी ही अवस्थाएं बालपना, यौवन और वृद्धपना है। शरीरके छूट जानेका नाम मरण है। जीव तो न जन्मता है और न मरता है , वह न बालक है न जवान है और न बूढ़ा है। ये सब शरीराश्रित है। शरीरको ही आपा माननेसे ऐसा समझता है मैं जन्मा मैं मरा। किन्तु जो मैं है वह तो शरीर और उसकी अवस्थाओंसे भिन्न एक शाश्वत स्वतन्त्र तत्त्व है उसकी न तो उत्पत्ति होती है और न विनाश होता है। उसका स्वरूप तो जानना देखना मात्र है। उसके न हाथ हैं, न पैर है, न सिर है और न धड़ है, हाथ-पैर आदि तो शरीरके अवयव हैं। उनके कट जाने पर भी जीव नहीं कटता, वह तो अखण्ड है। ऐसे अपने जीव द्रव्यके स्वाभाविक भाव जीवत्वकी श्रद्धा करनेसे, उसे जाननेसे और उसी में लीन होनेसे संसारके दुःखोंसे इस जीवका छुटकारा हो सकता है । अन्यथा नहीं हो सकता ।। आगे चार प्रकारके दुःखोंका स्वरूप कहते हैं भूख प्यास आदिसे होनेवाला दुःख सहज है। शीत वायु आदिसे होनेवाला दुःख नैमित्तिक है। रोग आदिसे होनेवाला दुःख देहज है और अनिष्ट संयोगसे होनेवाला दुःख मानसिक है ॥१२॥ आगे विभावस्वभावका फल कहते है-- विभावसे बन्ध होता है और स्वभावमें लीन होने से मोक्ष होता है । नयके द्वारा इसे जानने के पश्चात् योगी आराधक होता है ।।१३।। १. तहया आ०, तहयं अ० क० ख० ज० । २. णराणं मु०। ३. होई मु हवए अ० क०। हवई ख० ज०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001623
Book TitleNaychakko
Original Sutra AuthorMailldhaval
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages328
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size8 MB
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