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कारिका १२४ ] उपसंहार
३५३ भास्वावभासिरदोषा कुमतमल-ध्वान्त-भेदन-पटिष्टा ॥ आप्तपरीक्षालङ कृतिराचन्द्रार्क चिरं जयतु ॥२॥ स जयतु विद्यानन्दो रत्नत्रय-भूरि-भूषणः सततम् । तत्त्वार्थार्णवतरणे सदुपायः प्रकटितो येन ॥ ३॥
इत्याप्तपरीक्षा [स्वोपज्ञटीका युता] समाप्ता । 'सूर्य तथा चन्द्रमाके समान जिसका निर्मल प्रकाश है, निर्दोष है और जो मिथ्या मतरूपी अन्धकारके भेदन करने में पटु (समर्थ) है वह 'आप्तपरीक्षालङ कृति' टीका सूर्य-चन्द्रमा पर्यन्त चिरकाल तक मौजूद रहे । - जिसने तत्त्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रमें उतरने-अवगाहन करनेके लिये यह आप्तपरीक्षा व उसकी आप्तपरीक्षालंकृति टीका अथवा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकाररूप सम्यक् उपाय प्रकट किया और जो निरन्तर रत्नत्रयरूप बहु भूषणोंसे भूषित है वह विद्यानन्द जयवन्त हो-बहुत काल तक उसका प्रभाव, यश और वचनोंकी मान्यता पृथिवीपर प्रवर्तित रहे। इस सरह [ स्वोपज्ञटीकासहित ] आप्त-परीक्षा सानुवाद समाप्त हुई।
1. द 'भास्वभी निर्दोषा'। 2. म स प 'कुमतिमतध्वान्तभेदने पट्वी' । 3. म 'भूरिभूषणरसबलं'। 4. 'छ।। शुभमस्तु इत्याप्तपरीक्षा समाप्ता' इति द प्रतिपाठः । अत्र प्रतो तदनन्तरं 'संवत् १५७८ वर्षे श्रावणशुदि ३ शनी उ ॥श्री।। श्री॥' इति प्रतिलेखनसमयोऽपि उपलभ्यते । मु स प 'इत्याप्तपरीक्षा समाप्ता' । 'स्वोपज्ञटीकायुता' इति तु स्वनिक्षिप्तपाठः ।
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