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________________ ३४८ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका १२१ [ अर्हतः वन्द्यत्वे प्रयोजनकथनम् ] ३२२. कस्मात्पुनरेवंविधो भगवान् सकलपरीक्षालक्षितमोहक्षयः साक्षात्कृतविश्वतत्वार्थो वन्द्यते सद्भिः ? इत्यावेद्यतेमोहाऽऽक्रान्तान्न भवति गुरोर्मोक्षमार्गप्रणीति नर्ते तस्याः सकलकलुषध्वंसजा स्वात्मलब्धिः । तस्य वन्द्यः पर गुरुरिह क्षीणमोहस्त्वमर्हन् साक्षात्कुर्वन्नमलकमिवाशेषतत्त्वानि नाथ ! ॥१२१॥ ३२३. मोहस्तावदज्ञानं रागादिप्रपञ्चश्च' तेनाऽऽक्रान्ताद् गुरोमोक्षमार्गस्य यथोक्तस्य प्रणीतिर्नोपपद्यते, यस्माद्रागद्वेषाज्ञानपरवशीकृतमानसस्य सम्यगुरुत्वेनाभिमन्यमानस्यापि यथार्थोपदेशित्वनिश्चयासम्भवात्, तस्य वितथार्थाभिधानशङ्काउनतिक्रमाद्दूरे मोक्षमार्ग ३२२. अब आगे आचार्य यह बतलाते हैं कि किस कारणले श्रेष्ठ पुरुष इस प्रकारके भगवान् अरहन्तकी, जिसके मोहका नाश समस्त परीक्षाओंसे जान लिया है और जो समस्त पदार्थों को साक्षात् जानता है, वन्दना करते हैं ? __'मोहविशिष्ट गुरुसे मोक्षमार्गका प्रणयन सम्भव नहीं है और उसके बिना समस्त दोषोंके नाशसे उत्पन्न होनेवाली आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती । अतः हे अर्हन् ! हे नाथ ! उस आत्मस्वरूपको प्राप्तिके लिये आप उत्कृष्ट गुरु-यथार्थ आप्त-हितोपदेशीरूपसे यहाँ वन्दनीय हैं, क्योंकि आप क्षीणमोह हैं और हाथपर रखे हुए आँवलेकी तरह समस्त तत्त्वोंको साक्षात् करने-प्रत्यक्ष जाननेवाले हैं।' ३२३. अज्ञान और रागद्वेषादिका प्रपञ्च (विस्तार) मोह है और उससे विशिष्ट गुरु (आप्त) से पूर्वोक्त (सम्यग्दर्शनादि तीनरूप) मोक्षमार्गका प्रणयन (सम्यक् उपदेश) नहीं बन सकता है, क्योंकि जिसका मन राग, द्वेष और अज्ञानके वशीभूत है और जिसे सच्चा गुरु भी मान लिया जाता है उसके सम्यक् उपदेष्टा होने का निश्चय (गारंटी) नहीं है। कारण, वह मिथ्या अर्थका भी कथन कर सकता है, ऐसो शंका बनी रहनेसे मोक्षमार्ग का 1. मु 'प्रपञ्चस्ते' । 2. द "प्रती सम्यक् नास्ति । 3. मु'दूरमोक्ष'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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