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________________ ३४२ आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका [ कारिका ११८ 1 शब्दत्ववत् । शब्दत्वं हि यथा शब्दविशेषे वर्णपदवाक्यात्मके विवादास्पदे तथा ततविततघनसुषिरशब्देऽपि श्रावणज्ञानजननसमर्थतया शब्दव्यपदेशं नातिक्रामति, इति शब्दविशेषं धर्मिणं कृत्वा शब्दत्वं सामान्यं हेतु ब्रुवाणो न कञ्चिद्दोष मास्तिघ्नुते यथाऽनन्वय' दोषस्याप्यभावात् । तद्वन्मोक्षमार्गविशेषं धर्मिणमभिधाय मोक्षमार्गत्वं सामान्यं साधनमभिदधानो नोपालब्धव्यः । तथा साध्यधर्मोऽपि प्रतिज्ञार्थैकदेशो हेतुत्वेनोपादीयमानो न प्रतिज्ञार्थैकदेशत्वेनासिद्धः, तस्य धर्मिणा व्यभिचारात्, युक्त अनुमान में 'मोक्षमार्ग' विशेष (व्यक्ति) को धर्मी और 'मोक्षमार्गत्व' सामान्यको हेतु बनाया है और इसलिये उपर्युक्त दोष नहीं है । शंका- यदि आत्मनिष्ठ होनेसे 'मोक्षमार्ग' विशेष है तो 'मोक्षमार्गत्व' सामान्य कैसे है अर्थात् उसे सामान्य क्यों कहा जाता है ? समाधान - क्योंकि वह ( मोक्षमार्गत्व ) अनेक मोक्षमार्गव्यक्तियोंमें रहता है । किसी में मानसिक एवं शारीरिक व्याधिविशेषोंका मोक्षमार्ग है और किसी में द्रव्य तथा भाव समस्त कर्मोंका मोक्षमार्ग है और इसलिये 'मोक्षमार्गत्व' शब्दत्वकी तरह सामान्य है । प्रकट है कि जिस प्रकार 'शब्दत्व' विचारकोटिमें स्थित वर्ण, पद और वाक्यरूप शब्दविशेषों में रहता है तथा तत, वितत, घन एवं सुषिर शब्दों में भी श्रावणज्ञानको उत्पन्न करने में समर्थ होनेसे 'शब्द' व्यपदेशको उल्लंघन नहीं करता अर्थात् इन सभी विभिन्न शब्दोंमें शब्दत्व रहता है और इसलिये शब्दविशेषको धर्मी बनाकर शब्दत्वसामान्यको हेतु कहनेवालोंके कोई दोष नहीं होता । और न उसमें अनन्वयदोष ही आता है । उसी प्रकार मोक्षमार्गविशेषको धर्मी बनाकर मोक्षमार्गत्वसामान्यको साधन कहनेवाले भी दोषयोग्य नहीं हैं अर्थात् उनके भी कोई दोष नहीं हो सकता है । तथा साध्यधर्म भी प्रतिज्ञार्थैकदेश है, यदि उसे हेतु बनाया जाय तो वह प्रतिज्ञार्थैकदेशरूपसे असिद्ध नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसका धर्मी के साथ व्यभिचार है । कारण, धर्मी प्रतिज्ञार्थैकदेश होता हुआ भी असिद्ध नहीं होता । फिर वह असिद्ध कैसे है ? इसका उत्तर यह है कि चूँकि 1. द 'श्रवण' । 2. द 'ब्रुवतो न किंचिद्दोषस्तिष्ठते' । 3. व 'अनन्वयत्व' । 4. मुक स व 'नोपलब्धव्यः' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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