SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तपरीक्षा - स्वोपज्ञटीका [ कारिका ११८ रसायनफलस्यासम्भवात् । तद्वत्सकलकर्ममहाव्याधिविप्रमोक्षोऽपि तत्त्वश्रद्धानज्ञानाचरणत्रयात्मकादेवोपायादनपायमुपपद्यते, तदन्यतमापाये ३४० तदनुपपत्तेः । } ९ ३१३. ननु चायं प्रतिज्ञार्थैकदेशा सिद्धो हेतु:, शब्दानित्यत्वे शब्दत्ववत् इति न मन्तव्यम्, प्रतिज्ञार्थकदेशत्वेन हेतोर सिद्धत्वायोगात् । प्रतिज्ञा हि धर्मिधर्मसमुदायलक्षणा, तदेकदेशस्तु धर्मो धर्मो वा । तत्र न धर्मो तावदप्रसिद्धः, प्रसिद्धो धर्मो" [ न्यायप्रवेश पृ० १ ] इति वचनात् । न चायं धर्मत्त्वविवक्षायामप्रसिद्ध इति वस्तुं युक्तम्, प्रमाणतस्तत्स सम्प्रत्ययस्याविशेषात् । $ ३१४. ननु मोक्षमार्गो धर्मी मोक्षमार्गत्वं हेतु:, तच्च न धर्मि, सामान्यरूपत्वात् [ सामान्यरूपस्य च ] साधनधर्मत्वेन प्रतिपादनात्, इत्यपरः; सोऽप्यनुकुलमाचरति; साधनधर्मस्य धर्मिरूपत्वाभावे प्रतिज्ञा होनेपर वह नहीं बन सकता है । तात्पर्य यह कि मोक्षमार्ग में, चाहे वह किसी भी प्रकारका क्यों न हो, सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् बोध और सम्यक् आचरण इन तीनोंकी एकता अनिवार्य है और इसलिये पक्ष अप्रसिद्ध - विशेषण भी नहीं है । $ ३१३. शंका - यह हेतु प्रतिज्ञार्थैकदेशा सिद्ध है, जैसे शब्दको अनित्य सिद्ध करने में 'शब्दत्व' - शब्दपना हेतु ? समाधान- नहीं; क्योंकि प्रतिज्ञार्थैकदेशरूप से हेतु असिद्ध नहीं है । स्पष्ट है कि धर्म और धर्मीके समुदायको प्रतिज्ञा कहते हैं उसका एकदेश धर्मी अथवा धर्म है । उनमें धर्मी तो असिद्ध नहीं है, क्योंकि "धर्मी प्रसिद्ध होता है" [ न्यायप्रवे० पृ० १ ] ऐसा कहा गया है । तथा यह कहना कि धर्मित्व ( धर्मीपना) की विवक्षा के समय धर्मी असिद्ध है, युक्त नहीं है । कारण, प्रमाणसे उसकी सम्यक् प्रतोति होती है । तात्पर्य यह कि धर्मी कहीं तो प्रमाणसे, कहीं विकल्पसे और कहीं प्रमाण तथा विकल्प: दोनोंसे प्रसिद्ध रहता है । प्रकृत में 'मोक्षमार्ग' रूप धर्मी प्रमाणसे प्रसिद्ध है और इसलिये उक्त धर्मीको अप्रसिद्ध होनेका) दोष नहीं है । $ ३१४ शंका- 'मोक्षमार्ग' ( विशेष ) धर्मी है, 'मोक्षमार्गत्व' (सामान्य) हेतु है और इसलिये वह धर्मी नहीं हो सकता, क्योंकि वह सामान्यरूप है और सामान्यरूपका साधनधर्मरूपसे प्रतिपादन किया जाता है अर्थात् सामान्यको हेतु बनाया जाता है, धर्मी नहीं । और ऐसी हालत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy