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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [ कारिका ११५ त्वात्फलानुभवनम् न प्रधानस्य, अचेतनत्वादिति चेत्; न; मुक्तात्मनोऽपि प्रधानकृतकर्मफलानुभवनानुषङ्गात् । मुक्तस्य प्रधानसंसर्गाभावान्न तत्फलानुभवनमिति चेत्, तहि संसारिणः प्रधानसंसर्गाद्बन्धफलानुभवनं सिद्धम् । तथा च पुरुषस्यैव बन्धः सिद्धः ', प्रधानेन संसर्गस्य बन्धफलानुभवननिमित्तस्य बन्धरूपत्वात्, बन्धस्यैव संसर्ग इति नामकरणात् । स चात्मनः प्रधानसंसर्गः कारणमन्तरेण न सम्भवतीति पुरुषस्य मिथ्यादर्शनादिपरिणामस्तत्कारणमिति प्रत्येतव्यम् । प्रधानपरिणामस्यैव तत्संसर्गकारणत्वे मुक्तात्मनोऽपि तत्संसर्गकारणत्वप्रसक्तेरिति मिथ्यादर्शनादीनि भावकर्माणि पुरुषपरिणामात्मकान्येव पुरुषस्य परिणामित्वोपपत्तेः, तस्यापरिणामित्वे वस्तुत्वविरोधात्, निरन्वयविनश्वर ३३० द्वारा बन्ध और मोक्ष किये जाते हैं पर वह उनके फलका भोक्ता नहीं है. और इस तरह कृतका नाश हुआ। तथा पुरुषके द्वारा वे (बन्ध और मोक्ष ) किये नहीं जाते हैं लेकिन वह उनके फलका भोक्ता है और इसतरह यह अकृताभ्यागम हुआ । बतलाइये, इनका परिहार कैसे करेंगे ? यदि कहें कि पुरुष चेतन है, इसलिये वह फलका भोक्ता है किन्तु प्रधान फलका भोक्ता नहीं हैं, क्योंकि वह अचेतन है तो यह कहना भी उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि मुक्तात्माके भी प्रधानद्वारा किये कर्मके फलानुभवनका प्रसङ्ग आवेगा । कारण, वह भी चेतन है । यदि माना जाय कि मुक्तात्माके. प्रधानका संसर्ग नहीं है और इसलिये प्रधानकृत कर्मके फलानुभवनका मुक्तात्मा के प्रसंग नहीं आ सकता तो संसारी आत्माके प्रधानके संसर्गसे बन्धके फलका अनुभवन सिद्ध हो जाता है । और इस तरह पुरुष के ही बन्ध सिद्ध होता है, क्योंकि प्रधानके साथ जो संसर्ग है और जो बन्धके फलानुभवनमें कारण होता है वह बन्धरूप है, अतः बन्धका ही संसर्ग नाम रखा गया है । सो वह आत्माका प्रधानसंसर्ग ( बन्ध ) बिना कारणके सम्भव नहीं है, अतएव पुरुष ( आत्मा ) का मिथ्यादर्शनादिरूप परिणाम उस ( प्रधानसंसर्गरूप बन्ध ) का कारण समझना चाहिये । यदि प्रधानपरिणामको ही प्रधानसंसर्गका कारण माना जाय तो मुक्तात्माके भी वह ( प्रधानपरिणाम ) प्रधानसंसर्ग कराने में कारण होगा । इसलिये मिथ्यादर्शन आदि भावकर्म पुरुषपरिणामात्मक ही हैं, क्योंकि पुरुष परिणामी है । यदि वह अपरिणामी हो तो वह वस्तु नहीं बन सकता है, जैसे अन्वय 1 1. द 'बन्धसिद्धि' | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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