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________________ २७८ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ९१ विवदन्ते । वादिप्रतिवादिनोरविवादाच्च साध्यसाधनधर्मयोदृष्टान्ते' न साध्यवैकल्यं साधनवैकल्यं वा यतोऽनन्वयो हेतुः स्यात् । [पूर्वपक्षपुरस्सरं पक्षस्याप्रसिद्धविशेषणत्वपरिहारः] $२५३. नन्वतीन्द्रियप्रत्यक्षतोऽन्तरिततत्वानि प्रत्यक्षाण्यहंतः साध्यन्ते किञ्चेन्द्रियप्रत्यक्षत इति सम्प्रधार्यम् ? प्रथमपक्षे साध्यविकलो दृष्टान्तः स्यात्, अस्मादृक्प्रत्यक्षाणामर्थानामतीन्द्रियप्रत्यक्षतोहत्प्रत्यक्षत्वासिद्धेः। द्वितीयपक्षे प्रमाणबाधितः पक्षः, इन्द्रियप्रत्यक्षता धर्माधर्मादोनामन्तरिततत्त्वानामहत्प्रत्यक्षत्वस्य प्रमाणबाधितत्वात्। तथा हि'नाहदिन्द्रियप्रत्यक्ष धर्मादीन्यन्तरिततत्त्वानि साक्षात्कर्तुं समर्थम्, इन्द्रियप्रत्यक्षत्वात, अस्मदादीन्द्रियप्रत्यक्षवत्' इत्यनुमानं पक्षस्य बाधकम् । न चात्र हेतोः साजनचक्षुःप्रत्यक्षेणानकान्तिकत्वम्; तस्यापि धर्माधर्मादिसाक्षात्कारित्वाभावात् । नापीश्वरेन्द्रियप्रत्यक्षेण, तस्यासिद्धत्वात्, स्याद्वादिनामिव मीमांसकानामपि तवप्रसिद्धेरिति च न चोद्यम्, प्रतिवादी दोनोंको विवाद नहीं है तो दृष्टान्तमें न साध्यधर्मकी विकलता ( अभाव ) है और न साधनधर्मकी विकलता है, जिससे हेतु अनन्वयअन्वयशन्य हो। $ २५३. शंका-आप अतीन्द्रियप्रत्यक्षसे अन्तरिततत्त्वोंको अर्हन्तके प्रत्यक्ष सिद्ध करते हैं या इन्द्रियप्रत्यक्षसे ? यह आपको बतलाना चाहिये। यदि पहला पक्ष स्वीकार किया जाय तो दृष्टान्त साध्यविकल है, क्योंकि हम लोगोंके प्रत्यक्षपदार्थों में अतीन्द्रियप्रत्यक्षसे अर्हन्तकी प्रत्यक्षता नहीं है । अगर दूसरा पक्ष माना जाय तो पक्ष प्रमाणबाधित है, क्योंकि इन्द्रियप्रत्यक्षसे धर्म और अधर्म आदिक अन्तरित पदार्थों में अर्हन्तकी प्रत्यक्षता प्रमाणबाधित है। वह इस तरह है 'अर्हन्तका इन्द्रिय प्रत्यक्ष धर्मादिक अन्तरित पदार्थोंको साक्षात्कार करने ( स्पष्ट जानने ) में समर्थ नहीं है क्योंकि वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है, जैसे हमारा इन्द्रियप्रत्यक्ष' यह अनुमान प्रमाण आपके उक्त पक्षका बाधक है। इस अनुमानमें हमारा हेतु अञ्जनयुक्त चक्षुःप्रत्यक्षके साथ व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि वह भी धर्म-अधर्म आदिको साक्षात्कार नहीं करता है। ईश्वरके इन्द्रियप्रत्यक्ष के साथ भी व्यभिचारी नहीं है क्योंकि वह असिद्ध है । स्याद्वादियोंकी तरह मीमांसकोंके यहाँ भी ईश्वरका इन्द्रिय 1. मुब 'दृष्टान्ते च न' । मुक 'दृष्टान्तेन च न'। 2. मु 'न्वयहेतुः'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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