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कारिका ८८] अर्हत्सर्वज्ञ-सिद्धि
$ २४७. नन्वेवं मिसिद्धावपि हेतोश्चाश्रयासिद्धत्वाभावेऽपि पक्षोऽप्रसिद्धविशेषणः स्यात्, अर्हत्प्रत्यक्षत्वस्य साध्यधर्मस्य क्वचिदप्रसिद्धेरिति न मन्तव्यम्, पुरुषविशेषस्यार्हतः सम्बद्धवर्तमानार्थेषु प्रत्यक्षत्वप्रवृत्तेरविरोधादर्हत्प्रत्यक्षात्व] विशेषणस्य सिद्धौ विरोधाभावात् । तद्विरोधे क्वचिज्जैमिन्यादिप्रत्यक्ष[त्व] विरोधापत्तेः।
२४८. ननु च संवृत्त्याऽन्तरिततत्त्वान्यतः प्रत्यक्षाणोति साधने सिद्धसाधनमेव निपुणप्रज्ञे तथोपचारप्रवृत्तेरनिवारणादित्यपि नाशङ्कनीयम, अजसेति वचनात् । परमार्थतो ह्यन्तरिततस्वानि प्रत्यक्षाण्यहतः साध्यन्ते न पुनरुपचारतो यतः सिद्धसाधनमनुमन्यते । तथापि हेतो
और उसके प्रसिद्ध होनेसे हेतु आश्रयासिद्ध नहीं है।
६ २४७. शंका-उक्त प्रकारसे धर्मी सिद्ध हो भी जाय और हेतु आश्रयासिद्ध भी न हो तथापि पक्ष अप्रसिद्धविशेषण है-पक्षगत विशेषण असिद्ध है क्योंकि 'अर्हन्तको प्रत्यक्षता' रूप साध्य धर्म कहीं सिद्ध नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि योग्य पुरुषविशेषका नाम अर्हन्त है और उसके सम्बद्ध एवं वर्तमान पदार्थों में प्रत्यक्षताकी प्रवृत्ति विरुद्ध नहीं हैं अर्थात् कोई योग्य पुरुषविशेष सम्बद्धादि पदार्थोंको प्रत्यक्षसे जानता हआ सुप्रतीत होता है। और इसलिये 'अर्हन्तकी प्रत्यक्षता' रूप विशेषणके सिद्ध होने में कोई विरोध नहीं है। यदि सम्बद्धादि पदार्थों में अर्हन्तकी प्रत्यक्षताका विरोध हो तो किसी विषयमें जैमिनि आदिकी प्रत्यक्षताका भी विरोध प्राप्त होगा।
२४८. शंका-'अन्तरित पदार्थ अर्हन्तके प्रत्यक्ष हैं' यह यदि उपचारमे सिद्ध करते हैं तो सिद्धसाधन ही हैं क्योंकि किसी विशेष बुद्धिमान्में वैमी उपचारतः प्रवृत्ति हो तो उसे रोका नहीं जा सकता है ? ___ समाधान-यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'अञ्जसा'-'परमार्थतः' ऐसा कहा गया है। स्पष्ट है कि अन्तरित पदार्थ अर्हन्तके परमार्थतः प्रत्यक्ष सिद्ध किये जाते हैं, उपचारसे नहीं, जिससे हेतुको सिद्धसाधन माना जाय।
शंका-पक्ष अप्रसिद्धविशेषण न भी हो तथापि हेतु विपक्षमें रहनेसे अनैकान्तिक (व्यभिचारो ) है ?
1, 2. प्राप्तमुद्रितामुद्रितप्रतिषु प्रत्यक्षस्य' ।
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