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________________ २५२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ८६ प्रतिभासमानत्वात्। यद्यत्प्रतिभासमानं तत्तत्स्वयं प्रतिभासते, यथा भट्टमतानुसारिणामात्मा, प्रभाकरमतानुसारिणां वा फलज्ञानम् । प्रतिभासमानं चान्तर्बहिवस्तु ज्ञानज्ञेयरूपं विवादाध्यासितम्, तस्मात्स्वयं प्रतिभासते । न तावदत्र प्रतिभासमानत्वमसिद्धम, सर्वस्य वस्तुन; सर्वथाऽप्यप्रतिभासमानस्य सद्भावविरोधात् । साक्षादसाक्षाच्च प्रतिभासमानस्य तु सिद्धं प्रतिभासमानत्वं ततो भवत्येव साध्यसिद्धिः साध्याविनाभावनियमनिश्चयादिति निरवद्य पुरुषाद्वैतसाधनं संवेदनाद्वैतवादिनोऽभीष्टहानये भवत्येव । न हि कार्यकारण-ग्राह्यग्राहक-वाच्यवाचक-साध्यसाधक-बाध्यबाधक-विशेषणविशेष्यभावनिराकरणात्संवेदनाद्वतं व्यवस्थापयितुं शक्यम, कार्यकारणभावादीनां प्रतिभासमानत्वात्प्रतिभासमात्रान्तःप्रविष्टानांनिराकत्तु मशक्तेः । स्वयमप्रतिभासमानानां विचारकोटिमें स्थित वस्तु स्वयं प्रतिभासित होती है क्योंकि वह प्रतिभासमान है। जा जो प्रतिभासमान है वह वह स्वयं प्रतिभासित है जैसे भाटोंका आत्मा अथवा प्रभाकारोंका फलज्ञान । और प्रतिभासमान विचारकोटिमें स्थित ज्ञान और ज्ञेयरूप अन्तरंग और बहिरंग वस्तु है, इस कारण वह स्वयं प्रतिभासित होती है। यहाँ अनुमान में प्रयुक्त किया गया प्रतिभासमानपना हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि सर्व वस्तु अप्रतिभासमान हो तो उसका सद्भाव ही हीं बन सकता है । और यदि साक्षात् या परम्परासे उसे प्रतिभासमान कहा जाय तो प्रतिभासमानपना हेतु "सिद्ध है और उससे, जो साध्यका अविनाभावी है, साध्यकी सिद्धि अवश्य होती है । इस तरह यह निर्दोष पुरुषाद्वैतका साधन संवेदनाद्वैतवादोके इष्ट-संवेदनाद्वैतका हानिकारक ही है अर्थात् उससे संवेदनाहतका अवश्य निरा रण हो जाता है। प्रकट है कि कार्य-कारण, ग्राह्य-ग्राहक, वाच्य-वाचक, साध्य-साधक, बाध्य-बाधक और विशेषण-विशेष्यभावका निराकरण होनेसे संवेदनाद्वतकी व्यवस्था नहीं हो सकती है। तात्पर्य यह कि अद्वैत संवेदनमें कार्यकारणभाव, ग्राह्य-ग्राहकभाव आदि नहीं बनता है अन्यथा द्वैतका प्रसंग प्राप्त होता है और उनको स्वीकार करे बिना संवेदनाद्वैत व्यवस्थित नहीं होता, क्योंकि व्यवस्थाके लिए व्यवस्थाप्य और व्यवस्थापक, जो साध्य-साधक आदिरूप हैं, मानना पड़ते हैं किन्तु कार्यकारणभाव आदि प्रतिभासमान होनेसे प्रतिभाससानान्यके अन्तर्गत आ जाते हैं और इसलिए उनका निराकरण ( खण्डन ) नहीं किया जा 1. स द 'आत्मा, प्रभाकरमतानुसारिणां' पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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