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________________ प्रस्तावना जैमिनीके मीमांसासूत्रपर शवरके भाष्यके अलावा भट्ट कुमारिलका मीमांसाश्लोकवार्तिक भी है तब उन्होंने जैनदर्शनके प्रतिपादक श्रीगृद्धपिच्छाचार्यरचित सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्रपर अकलङ्कदेवके तत्त्वार्थवात्तिकभाष्यसे अतिरिक्त तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक बनाया और उसमें अपना अगाध पाण्डित्य एवं तार्किकता भर दी, जिसे उच्चकोटिके विशिष्ट दार्शनिक विद्वान् ही अवगत कर सकते हैं । साधारण लोगोंका उसमें प्रवेश पाना बड़ा कठिन है । अतएव उन्होंने जैनदर्शनजिज्ञासु प्राथमिक जनोंके बोधार्थ प्रमाणपरीक्षा, आप्त-परीक्षा, पत्र परीक्षा,सत्यशासन-परीक्षा आदि परीक्षान्त सरल एवं विशद ग्रन्थोंकी रचना की । प्रतीत होता है कि इन ग्रन्थोंका नामकरण आ० विद्यानन्दने दिग्नागकी आलम्बनपरीक्षा, त्रिकालपरीक्षा, धर्मकीर्तिकी सम्बन्धपरीक्षा, धर्मोत्तरको प्रमाणपरीक्षा व लघुप्रमाणपरीक्षा, और कल्याणरक्षितकी श्रुतिपरीक्षा जैसे पूर्ववर्ती परीक्षान्त ग्रन्थोंको लक्ष्यमें रखकर किया है। इस प्रकार जटिल और सरल दोनों तरहकी रचनाएँ करके विद्यानन्दने व्युत्पन्न और अव्युत्पन्त उभयप्रकारके तत्त्वजिज्ञासूओंकी ज्ञानपिपासाको शान्त किया है। और वे इसमें पूर्णतः सफल हुए हैं। उनकी प्रसन्न रचनाशैली पाठकपर आश्चर्यजनक प्रभाव डालती है और निश्चय ही पाठक उसकी ओर आकर्षित होता है। इसमें सन्देह नहीं कि उनके ये परीक्षान्त ग्रन्थ अधिक लोकप्रिय रहे हैं और आप्तपरीक्षा तो विशेष लोकप्रिय रही है। यही कारण है कि वह आज भी समाजकी सभीशिक्षासंस्थाओंके पठनक्रम और परीक्षाक्रममें निहित है। अतः स्पष्ट है कि आप्तपरीक्षा महत्वपूर्ण श्रेष्ठ ग्रन्थ है और वह जैन दार्शनिक साहित्य१. लघुसमन्तभद्र ( १३वीं शती ) ने अपने 'अष्टसहस्रीटिप्पण' (पृ० १० लि०) में 'पत्रपरीक्षायामुक्तत्वात्' कहकर पत्रपरीक्षा तथा अभिनव धर्मभूषण ( १५ वीं शती ) ने 'न्यायदीपिका' ( पृ० १७, पृ० ८१ ) में 'प्रपञ्चः पुनरवयवविचारस्य पत्रपरीक्षायामीक्षणीयः' और 'तदुक्त' प्रमाणपरीक्षायां ज्ञप्ति प्रति' कह कर पत्रपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षाके समुल्लेख किये हैं। इससे इन ग्रन्थोंकी लोकप्रियता प्रकट है। गणधरकोति ( वि० सं० ११८९ ) जैसे प्रमुख विद्वानोंने अपनी अध्यात्मतरंगिणीटीका आदिमें आप्तपरीक्षाका निम्न प्रकार समुल्लेख किया है:'यतः श्रेयःशब्देन मोक्षमभिधीयते । श्रेयः परमपरं च प्राप्तविचारावसरे आप्तपरीक्षायां तथाऽभिधानात् ।'-अध्या० टी. लि. प. ५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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