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________________ कारिका ८६ ] सुगत-परीक्षा २४५ मात्रान्तःप्रविष्टत्वाद्विरोधकत्वासिद्धेः। स्वयमप्रतिभासमानस्य च विरोधकत्वं दुरुपपादम्, स्वेष्टतत्त्वस्यापि सर्वेषामप्रतिभासमानेन विरोधकेन विरोधापत्तेर्न किञ्चित्तत्त्वमविरुद्धं स्यात् । $ २२०. यदप्यभ्यधायि "हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः। हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ।।'' [ आप्तमी० का० २६ ] इति । २२१. तदपि न पुरुषाद्वैतवादिनः प्रतिक्षेपकम्, प्रतिभासमानत्वस्य हेतोः सर्वस्य प्रतिभासमात्रान्तःप्रविष्टत्वसाधनस्य स्वयं प्रतिभासमानस्य प्रतिभासमात्रान्तःप्रविष्टत्वसिद्धेद्वै तसिद्धिनिबन्धनत्वाभावात् । हेतुना विना चोपनिषद्वाक्यमात्रात्पुरुषाद्वैतसिद्धेन वाङ्मात्रादह तसिद्धिः स्वतंत्रतारूप दो बन्ध-मोक्षतत्त्व प्रतिभासमान होते हैं, इसलिये प्रतिभाससामान्यके अन्तर्गत हो जानेसे वे विरोधक-विरोधको करनेवाले नहीं हैं अर्थात विरोधको प्राप्त नहीं होते। और अगर वे स्वयं अप्रतिभासमान हैं तो उनके विरोधकपनेका उपपादन करना दुःशक्य है। तात्पर्य यह कि जो प्रतिभासमान नहीं है उसे विरोधक-विरोधको प्राप्त होनेवाला नहीं बतलाया जा सकता है, अन्यथा सबका अपना इष्ट तत्त्व भी अप्रतिभासमान विरोधकके साथ विरोधको प्राप्त होगा और इस तरह कोई तत्त्व अविरुद्ध-विरोधरहित नहीं बन सकेगा। २२०. जो और भी कहा है कि'यदि हेतुसे अद्वैतको सिद्धि की जाय तो हेतु और साध्यके द्वैतका प्रसंग आता है और अगर हेतुके बिना ही अद्वैतकी सिद्धि करें तो कहनेमात्रसे द्वैत क्यों सिद्ध न हो जाय ?' २२१. वह भी पुरुषाद्वैतवादीका निराकरण करनेवाला नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों को प्रतिभाससामान्यके अन्तर्गत सिद्ध करनेवाला प्रतिभासमानपना हेतु स्वयं प्रतिभासमान है, अतः वह भी प्रतिभाससामान्यके अन्तर्गत सिद्ध हो जाता है और इसलिये वह द्वैतसिद्धिका कारण नहीं हो सकता है। तथा हेतु के बिना केवल उपनिषद् वाक्यसे भो पुरुषाद्वैतकी सिद्धि स्वीकार करते हैं, इसलिये वचनमात्र-कहने मात्रसे 1. मु 'प्रतिभासप्रतिभासमात्रा' । 2. मु स 'सिद्धी'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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