SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कारिका ८३] कपिल-परोक्षा २१७ मर्थसंवेदनं पुरुषादन्यदभिधीयते ? तथाऽभिधाने स्वरूपसंवेदनमपि पुंसोऽन्यत्प्राप्तम्, तस्य कादाचित्कतया शाश्वतिकत्वाभावात् । तादृशस्वरूपसंवेदनादात्मनोऽनन्यत्वे ज्ञानादेवानन्यत्वमिष्यताम । ज्ञानस्यानित्यत्वात्ततोऽनन्यत्वे पुरुषस्यानित्यत्वप्रसङ्ग इति चेतन स्वरूपसंवेदनादप्यनित्यादा त्मनोऽनन्यत्वे कथञ्चिदनित्यत्वप्रसङ्गो दुःपरिहार एव । स्वरूपसंवेदनस्य नित्यत्वेऽर्थसंवेदनस्यापि नित्यता स्यादेव । परापेक्षातस्तस्यानित्यत्वे स्वरूपसंवेदनस्याऽप्यनित्यत्वमस्तु । न चात्मनः कथञ्चिदनित्यत्वमयुक्तम्, सर्वथा नित्यत्वे प्रमाणविरोधात्। सोऽयं सांख्यः पुरुषः कादाचित्कार्थसंचेतनात्मकमपि निरतिशयं नित्यमाचक्षाणो ज्ञानात्कादाचित्कादनन्यत्वमनित्यत्वभयान्न प्रतिपद्यत इति किमपि महाद्भतम् ? सांख्य--अर्थसंवेदनकी । जैन-तो क्या आप अर्थसंवेदनसे पुरुषको भिन्न कहते हैं ? सांख्य-हाँ, उससे पुरुषको भिन्न कहते हैं । जैन-तो स्वरूपसंवेदनसे भी पुरुषको भिन्न कहना चाहिए, क्योंकि वह कादाचित्क होनेसे शाश्वतिक ( नित्य-सर्वदा रहनेवाला ) नहीं है। सांख्य-स्वरूपसंवेदनसे हम पुरुषको अभिन्न कहते हैं ? जैन-तो ज्ञानसे ही पुरुषको अभिन्न कहिये । सांख्य-ज्ञान अनित्य है, इसलिये उससे पुरुषको अभिन्न कहनेपर पुरुषके अनित्यपनाका प्रसंग आता है । अतः ज्ञानसे पुरुष अभिन्न नहीं है ? जैन-नहीं, क्योंकि अनित्य स्वरूपसंवेदनसे भी पुरुषको अभिन्न कहनेमें पुरुषके कथंचित् अनित्यता प्रसक्त होती है और जो दुष्परिहार्य हैकिसी तरह भी उसका परिहार नहीं किया जा सकता है। सांख्य-स्वरूपसंवेदन नित्य है, अतः उक्त दोष नहीं है ? जैन-तो अर्थसंवेदन भी नित्य हो और इसलिये पूर्वोक्त दोष उसमें भी नहीं है। सांख्य--अर्थसंवेदनमें परकी अपक्षा होती है, इसलिये वह अनित्य है ? जैन-स्वरूपसंवेदन भी अनित्य है, क्योंकि उसमें भी परकी अपेक्षा संभव है। दूसरे, आत्माके कथंचित् अनित्यपना अयुक्त नहीं है, क्योंकि सवथा नित्य मानने में प्रमाणका विरोध आता है अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणसे आत्मा सर्वथा नित्य-कूटस्थ प्रतीत नहीं होता। आश्चर्य है कि आप 1. स मु प्रतिषु 'न' पाठो नास्ति । 2. मु स 'त्यत्वादात्म' । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy