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________________ १८० आप्तपरोक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ७७ व्योम्नाऽनैकान्तिकोऽयं हेतुरिति चेत्, न; तस्य प्रत्यक्षतो भिन्नदेशतयाऽतीन्द्रियस्य युगपदुपलम्भाभावात् । परेषां युगपद्भिन्नदेशाकाशलिङ्गशब्दोपलम्भासम्भवाच्च नानुमानतोऽपि भिन्नदेशतया युगपदुपलम्भोऽस्ति यतस्तेनानै कान्तिकत्वं हेतोरभिधीयते। नानादेशाकाशलिङ्गशब्दानां नानादेशस्थपुरुषैः श्रवणादाकाशस्यानुमानात् युगपद्भिन्नदेशतयोपलम्भस्य प्रसिद्धावपि न तेन व्यभिचारः साधनस्य, तस्य प्रदेशभेदानानात्वसिद्धेः। निःप्रदेशस्य युगपद्भिन्नदेशकालसकलमूर्तिमद्रव्यसंयोगानामनुपपत्तेरेकपरमाणुवत। [सत्तायाः स्वतन्त्रपदार्थत्वं निराकृत्यासत्तादृष्टान्तेन तस्याः पदार्थधर्मत्वसाधनं चातुर्विध्यसमर्थनं च ] १६८. न चेयं सत्ता स्वतन्त्र: पदार्थः सिद्धः, पदार्थधर्मत्वेन प्रती. यमानत्वात्, असत्त्ववत् । यथैव हि घटस्यासत्त्वं पटस्यासत्त्वमिति पदार्थ'ये घडा, वस्त्रादिक सत् हैं। इस प्रकारका निर्बाध ज्ञान होता है। वैशेषिक-आपका यह हेतु आकाशके साथ अनैकान्तिक है, क्योंकि आकाश भिन्न देशोंमें उपलब्ध होता है, पर वह अनेक नहीं है-एक है ? जैन-नहीं, आकाश अतोन्द्रिय ( इन्द्रियागोचर ) है और इसलिये वह प्रत्यक्षसे एक-साथ भिन्न देशोंमें उपलब्ध नहीं होता। दूसरे, आपके यहाँ एक-साथ भिन्न देशवर्ती आकाशज्ञापक शब्दोंका उपलम्भ भी सम्भव नहीं है, अतः अनुमानसे भी आकाशका भिन्न देशों में एक-साथ ग्रहण नहीं हो सकता है, जिससे आकाशके साथ हेतुको अनैकान्तिक बतलाय । __ वैशेषिक-विभिन्नदेशवर्ती आकाशज्ञापक शब्द विभिन्न देशीय पुरुषोंद्वारा सुने जाते हैं और इसलिये आकाशकी अनुमानसे एक-साथ भिन्न देशोंमें उपलब्धि सुप्रसिद्ध है। अतः उसके साथ हेतु अनैकान्तिक है ही। ___ जैन-नहीं, हेतु उसके ( आकाशके ) साथ अनैकान्तिक नहीं है, क्योंकि आकाशको हमने प्रदेशभेदसे अनेक व्यवस्थापित किया है। प्रदेशरहित पदार्थमें एक परमाणुकी तरह एक-साथ भिन्न देश और कालवर्ती समस्त मूर्तिमान् द्रव्योंके साथ संयोग नहीं बन सकते हैं और चकि आकाशका समस्त मूर्तिमान् द्रव्योंके साथ संयोग सर्व प्रसिद्ध है। अतः उस प्रदेशभेदरहित नहीं माना जा सकता है । अतएव वह प्रदेशभेदकी अपेक्षासे अनेक है और इसलिये उसके साथ अनैकान्तिक नहीं है। १६८. दूसरी बात यह है कि सत्ता स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध नहीं होती, क्योंकि वह पदार्थका धर्म प्रतीत होती है, जैसे असत्ता। प्रकट है कि जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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