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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ५५. [वैशेषि० सू०७-२-२८] इति सिद्धान्तस्य चानिष्ठितिः। 'सैवेहेदमिति प्रत्ययस्य बाधा, ततो नाबाधत्वं नाम विशेषणं हेतोयेंनाऽनेकान्तः स्यात्, इति ये वदन्ति तेषां विशेषणविशेष्यत्वसम्बन्धोऽपि समवायिषु समवाय इति प्रत्ययान्न सिद्ध्येत्, अनवस्थायाः सद्भावात् । विशेषणविशेष्यभावो हि समवायसमवायिनां परैरिष्टः समवायस्य विशेषणत्वात्समवायिनां विशेष्यत्वात, अन्यथा समवायप्रतिनियमानुपपत्तेः। स च समवाय समवायिभ्योऽर्थान्तरमेव न पुनरनर्थान्तरं समवायस्यापि समवायिभ्योऽनर्थान्तरत्वा पत्तः । स चार्थान्तरभूतो विशेषणविशेष्यभावः सम्बन्धः स्वसम्बन्धिः परस्मादेव विशेषणविशेष्यभावात्प्रतिनियतः स्यात, नान्यथा।
कहा गया है" [वैशेषि० सू० ७-२-२८] इस सिद्धान्तकी हानि होती है। इसलिये यह सिद्धान्त-हानि ही वहाँ 'इहेदं' प्रत्ययकी बाधक है । अतः उक्त प्रत्ययमें 'अबाधपना' ( बाधारहितपना ) विशेषण नहीं है। तात्पर्य यह कि उक्त स्थलमें उक्त प्रत्यय अबाधित नहीं है, जिससे हेतु अनैकान्तिक होता?
जैन-आपका यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि आपका अभिमत विशेषणविशेष्यभावरूप सम्बन्ध भी 'समवायिओंमें समवाय' इस ज्ञानसे सिद्ध नहीं हो सकता, कारण, उसमें अनवस्था आती है। प्रकट है कि आप लोग समवाय और समवायिओंमें विशेषण-विशेष्यभाव स्वीकार करते हैं। समवाय तो विशेषण है और समवायो विशेष्य हैं। यदि उनमें विशेषण-विशेष्यभाव न हो तो समवायका प्रतिनियम ( अमुकमें ही समवाय है, अमकमें नहीं, ऐसा व्यवस्थाकारक नियम ) नहीं बन सकता है । सो वह विशेषणविशेष्यभाव समवाय-समवायिओंसे भिन्न ही स्वीकार किया जायगा, अभिन्न नहीं। अन्यथा, समवायको भी समवायिओंसे अभिन्न मानना होगा। इस तरह भिन्न माना गया वह विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्ध अपने सम्बन्धियोंमें अन्य दूसरे विशेषण-विशेष्यभाव सम्बन्धसे प्रतिनियमित होगा, अन्य प्रकार नहीं और उस दशामें अन्य, अन्य विशेषण-विशेष्यभावोंकी कल्पना करनेपर अनवस्था नामकी बाधा पूर्ववत् इसमें (विशेषण-विशेष्यभावके.
1. द 'सा चे'। 2 द स 'समवायः समवायि' । 3. स 'अर्थान्तरमेव' इत्यतः 'सच' इत्यन्तं पाठो त्रुटितः । 4. मुरापत्तेः'।
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