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आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ४२ चोदनायाः न्यायप्राप्तत्वात्। तत्परिहारार्थमाधाराधेयभूतानामिति वचनस्योपपत्तेः। नन्वेवमपीह कुण्डे दधीति प्रत्ययेनानेमान्तः, तस्य संयोगनिबन्धनत्वेन समवायाहेतुकत्वादिति न शंकनीयम्, अयुतसिद्धानामिति प्रतिपादनात्। न हि यथाऽवयवावयव्यादयोऽयतसिद्धास्तथा दधिकुण्डादयः, तेषां युतसिद्धत्वात् । तहि 'अयुतसिद्धानामेव' इति वक्तव्यम्, आराधाधेयभूतानामिति वचनस्याभावेऽपि व्यभिचाराभावात्; इति न चेतसि विधेयम; वाच्यवाचकभावेनाकाशाकाशशब्दयोळभिचारात् । 'इहाऽऽकाशे वाच्ये वाचक आकाशशब्दः' इति इहेदंप्रत्ययलिङ्गस्यायुतसिद्धसम्बन्धस्य वाच्यवाचकभावस्य प्रसिद्धस्तेन व्यभिचारोपपत्तेराधाराधेयभूतानामिति वचनस्योपपत्तेः । नन्वाधाराधेयभूतानाम
अथवा, उसमें भ्रान्तिसे किसीको ‘इहेदं' प्रत्यय सम्भव है और उसके साथ अतिव्याप्तिकथन न्यायप्राप्त है-असंगत नहीं है। अतः उसके परिहारार्थ 'आधाराधेयभूत' यह विशेषण कहना सर्वथा उचित है ।
शङ्का-'आधाराधेयभूत' विशेषण कहनेपर भी 'इस कुण्ड में दही है' इस प्रत्ययके साथ अतिव्याप्ति है, क्योंकि वह संयोगसम्बन्धहेतुक प्रत्यय है, समवायहेतुक नहीं ? ___समाधान-उक्त शङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि 'अयुतसिद्ध' विशेषण कहा है । स्पष्ट है कि जिस प्रकार अवयव-अवयवी आदिक अयुतसिद्ध हैं उस प्रकार दही-कुण्ड आदिक नहीं हैं, क्योंकि वे युतसिद्ध हैं।
शङ्का-तब 'अयुतसिद्ध' यहो विशेषण कहना उचित है, क्योंकि 'आधाराधेयभूत' विशेषणके न कहनेपर भी अतिव्याप्ति नहीं हो सकती है ?
समाधान-यह विचार भी चित्तमें नहीं लाना चाहिये, क्योंकि आकाश और आकाशशब्दमें रह रहे वाच्यवाचकभावके साथ अतिव्याप्ति है । 'इस आकाश वाच्य में वाचक आकाशशब्द है' यहाँ वाच्य-वाचकभाव है और वह 'इहदं' प्रत्ययसे अवगत होता है तथा अयुतसिद्ध भी है । अतः उसके साथ अतिव्याप्ति उपपन्न है, इसलिए उसके परिहारार्थ 'आधाराधेयभूत' यह विशेषण देना बिल्कुल ठोक है ।
1. द 'अनेकान्तः' इति पाठो नास्ति । 2. व 'ने'। 3. म 'भावप्रसिद्धः'।
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