SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका तरह उन्होंने आप्तकी मीमांसा करते हुए आगम मान्य सर्वज्ञताको तर्कको कसौटी पर कसकर दर्शनशास्त्र में सर्वज्ञकी चर्चाका अवतरण किया । इस प्रसंग में सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसककी चर्चा कर देना प्रासंगिक होगा । स्वामी समन्तभद्र और शवरस्वामी मीमांसक वेदको अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण मानते हैं । शवरस्वामीने अपने शावर भाष्य में लिखा है कि वेद भूत, वर्तमान और भावी तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान कराने में समर्थ है । यथा"चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जाती - यकमर्थमवगमयितुमलम्' [ शा० १-१-२ ] श्रमण संस्कृति केवल निरीश्वरवादी ही नहीं है किन्तु वेदके प्रामाण्य और उसके अपौरुषेयत्वको भी वह स्वीकार नहीं करती। जैन और बौद्ध दार्शनिकोंने ईश्वरकी ही तरह वेदके प्रामाण्य और अपौरुषेयत्वकी खूब आलोचना की है । अतः जब वेदवादी वेदको त्रिकालदर्शी बतलाते थे तो जैन और बौद्ध दार्शनिक पुरुषविशेषको त्रिकालदर्शी सिद्ध करते थे । शवरस्वामीकी उक्त पंक्तियाँ पढ़कर आचार्य समन्तभद्रकी सर्वज्ञसाधिका कारिकाका स्मरण वरवस हो आता है । जो इस प्रकार हैसूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षा कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽन्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ ५॥ -आप्तमीमांसा भाष्य सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट शब्द तथा कारिकाके सूक्ष्म, अन्तरित और दूरार्थ शब्द एकार्थवाची हैं । दोनोंमें प्रतिबिम्ब-प्रतिबिम्बकभाव जैसा झलकता है । और ऐसा लगता है कि एकने दूसरेके विरोध में अपने शब्द कहे हैं । शवरस्वामीका समय ई० स० २५० से ४०० तक अनुमान किया जाता है । स्वामी समन्तभद्रका भी लगभग यही समय माना जाता है । विद्वानोंमें' ऐसी मान्यता प्रचलित है कि शवरस्वामी जैनों के भय से बनमें शबर अर्थात् भीलका वेष धारण करके रहता था इसलिये उसे शबरस्वामी कहते थे । शिलालेखों वगैरहसे स्पष्ट है कि आचार्य समन्तभद्र अपने समय के प्रखर तार्किक, वाग्मी और वादी थे तथा उन्होंने जगह-जगह भ्रमणकर शास्त्रार्थ में प्रतिवादियोंको परास्त किया था। हो सकता है कि उन्हींके भय से शवरस्वामीको वनमें शवरका भेष १. हिन्दतत्त्वज्ञाननो इतिहास उ० पृ० ११२ । Jain Education International ---- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy