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कारिका ४०, ४१ ] ईश्वर-परीक्षा
१३३ मित्यभ्युपगम्यमानेऽनवस्था महीयसी स्यात् । सुदूरमप्यनुसृत्य कस्यचिद्विज्ञानस्य स्वार्थावभासनस्वभावत्वे प्रथमस्यैव सहस्त्रकिरणवत स्वार्थावभासनस्वभावत्वमुररोक्रियतामलमस्वसंविदितज्ञानकल्पनया।
[ महेश्वरज्ञानस्य महेश्वराद्भिन्नत्वाभ्युपगमे दूषणप्रदर्शनम् ]
६ १२७. स्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानाभ्युपगमे च युष्माकं तस्य महेश्वराद् भेदे पर्यनुपयोगमाह
तत्स्वार्थव्यवसायात्म ज्ञानं भिन्नं महेश्वरात् । कथं तस्येति निर्देश्यमाकाशादिवदजसा ॥४०॥ - समवायेन, तस्यापि तद्भिन्नस्य कुतो गतिः' ? । इहेदमिति विज्ञानादबाध्याद्व्यभिचारि तत् ॥४१॥
लिये उसके असर्वज्ञता नहीं है तो वह अन्य ज्ञान भी अन्य तृतीय ज्ञानसे जाना जावेगा और ऐसा माननेपर बड़ी अनवस्था आयेगी। बहुत दूर पहँचकर भी यदि किसी ज्ञानको स्वार्थावभासी ( अपने और अर्थका प्रकाशक ) स्वीकार करें तो उससे अच्छा यही है कि पहले ही ज्ञानको सूर्यकी तरह स्वपरप्रकाशकस्वभाव स्वीकार करें और उस हालतमें अस्वसंवेदीज्ञानकी कल्पना व्यर्थ है।
$ १२७. अब दूसरे विकल्पमें, जो महेश्वरज्ञानको स्वसंवेदी माननेरूप है, दूषण दिखाते हैं और यह कहते हए कि यदि महेश्वरज्ञानको आप लोग स्वार्थप्रकाशक स्वीकार करें तो यह बतलाना चाहिये कि वह महेश्वरसे भिन्न है क्या? और भेद माननेपर निम्न पर्यनुयोग-(दूषणार्थजिज्ञासाप्रश्न ) किये जाते हैं :
'यदि वह महेश्वरज्ञान, जिसे आपने स्वार्थव्यवसायात्त्मक स्वीकार किया है, महेश्वरसे भिन्न है तो वह उसका है' यह निश्चयसे आकाशादिको तरह कैसे निर्देश हो सकेगा? तात्पर्य यह कि जिस प्रकार महेश्वरज्ञान आकाशादिसे भिन्न है और इसलिये वह उनका नहीं माना जाता है उसोप्रकार वह महेश्वरसे भी सर्वथा भिन्न है तब वह महेश्वरका है अन्यका नहीं, यह निर्देश कैसे बन सकेगा ?
1. मु 'मतिः ' ।
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