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________________ १२२ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका ३६ तेष्वसत्सु चानुत्पद्यमानानां तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तद्धेतुकत्वस्यैव प्रसिद्धर्महेश्वरज्ञानहेतुकत्वं दुरुपपादमापनीपद्यते । $ ११८. यदि पुनः सकलसहकारिकारणानामनित्यानां क्रमजन्मनामपि चेतनत्वाभावाच्चेतनेनानधिष्ठितानां कार्यनिष्पादनाय प्रवृत्तेरनुत्पत्ते स्तुरीतन्तुवेमशलाकादीनां कुविन्देनानधिष्ठितानां पटोत्पादनायाप्रवृत्तिवच्चेतनस्तदधिष्ठाता साध्यते । तथा हि-विवादाध्यासितानि कारणान्तराणि क्रमवर्तीन्यक्रमाणि च चेतनाधिष्ठितान्येव तन्वादिकार्याणि कुर्वन्ति स्वयमचेतनत्वात, यानि यान्यचेतनानि तानि तानि चेतनाधिष्ठितान्येव स्वकार्यकुर्वाणानि दृष्टानि, यथा तुरीतन्त्वादीनि पटकार्यम्, स्वममचेतनानि च कारणान्तराणि, तस्माच्चेतनाधिष्ठिवास्तविक क्रम सहकारी कारणोंमें ही उपपन्न होता है और इसलिये क्रमवान् सहकारी कारणोंके होनेपर शरीरादिक कार्योंकी उत्पत्ति होती है और उनके न होनेपर उनकी उत्पत्ति नहीं होती है, इस प्रकार सहकारी कारणोंका ही कार्योंके साथ अन्वय-व्यतिरेक बनता है। अतः शरीरादिक कार्य सहकारी कारणहेतुक ही प्रसिद्ध होते हैं, महेश्वरज्ञानहेतुक नहीं। $ ११८. वैशेषिक-यह ठीक है कि सहकारी कारग अनित्य हैं और क्रमजन्य भी हैं, लेकिन वे चेतन नहीं हैं और इसलिये चेतनद्वारा जब तक अधिष्ठित (नियोजित ) न होंगे तब तक कार्योंको उत्पन्न करनेके लिए उनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। जैसे तुरी, सूत, वेम, शलाका आदि जब तक जुलाहेसे अधिष्ठित नहीं हो जाते तब तक पटके उत्पन्न करनेके लिये वे प्रवृत्त नहीं होते । अतः उनका चेतन अधिष्ठाता ( नियोक्ता ) साधनीय है। वह इस प्रकारसे है-'विचारकोटिमें स्थित क्रमवान् और अक्रमवान् दोनों ही प्रकारके सहकारी कारण चेतनद्वारा अधिष्ठित होकर ही शरीरादिक कार्योंको करते हैं, क्योंकि स्वयं अचेतन हैं। जो जो अचेतन होते होते हैं वे वे चेतनद्वारा अधिष्ठित होकरके ही अपने कार्यको करते हुए देखे जाते हैं । जैसे तुरी, सूत आदि पटके कारण चेतन जुलाहासे अधिष्ठित होकर पटरूप कार्यको उत्पन्न करते हैं । और स्वयं अचेतन सहकारी 1. मु 'द्यत' । 2. 'रनुपपत्तेः' इति पाठेन भाव्यम् । सम्पा० । 3. द 'वा'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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