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________________ ९७ कारिका २७ ] ईश्वर-परीक्षा परिकल्प्यमानस्य पुरुषस्य निरतिशयस्य सर्वदोदासीनस्य वैयर्थ्यमापादितमिति बोद्धव्यम् । वैशेषिकाणामात्मादिवस्तुनो नित्यस्याप्यर्थान्तरभूतैरतिशयैः सातिशयत्वोपगमात्सर्वदोदासीनस्य कस्यचिदप्रतिज्ञानादिति केचिदाचक्षते। ६९४. तेऽप्येवं प्रष्टव्याः; कथमीश्वरज्ञानस्य ततोऽर्थान्तरभूतानामतिशयानां क्रमवत्त्वे वास्तवं क्रमवत्त्वं सिद्ध्येत् ? तेषां तत्र समवायात, इति चेत्, कथमन्तिरभूतानामतिशयानामीश्वरज्ञान एव समवायोन पुनरन्यत्रेति ? तत्रैवेहेदमिति प्रत्ययविशेषोत्पत्तेरिति चेत्, ननु स एव 'इहेदम्' इति प्रत्ययविशेषः कुतोऽन्यत्रापि न स्यात् ? सर्वथा विशेषाभावात । यथैव हि, इह महेश्वरज्ञानेऽतिशया इति ततोऽर्थान्तरभाविनोऽपि प्रतीयन्ते तथेह घटे तेऽतिशया प्रतीयन्ताम् । तत्रैव तेषां समवाया बनता है। इस विवेचनसे सांख्योंद्वारा माने गये अपरिणामो और सर्वदा उदासीन रहनेवाले पुरुषकी व्यर्थताका आपादन समझना चाहिये । वैशेषिकोंके आत्मा आदि पदार्थ यद्यपि नित्य हैं तथापि वे उन्हें भिन्नभूत परिणामोंसे परिणामी मानते हैं उन्होंने सदा उदासीन कोई भी पदार्थ नहीं माना, इस प्रकार वैशेषिक मतको माननेवाले कोई वैशेषिक कथन करते हैं ? ६९४. समाधान-उनसे भी हम पूछते हैं कि ईश्वरज्ञानसे भिन्न अतिशयोंको क्रमवान् होनेसे ईश्वरज्ञानके वास्तविक क्रमवत्ता कैसे सिद्ध हो सकती है ? यदि कहें कि वे वहाँ समवायसम्बन्धसे सम्बद्ध हैं, अतएव अतिशयोंमें क्रम होनेसे ईश्वरज्ञानमें भी क्रम बन जाता है तो यह बतलायें कि उन सर्वथा भिन्न अतिशयोंका ईश्वरज्ञान में ही समवाय क्यों है, अन्यत्र ( दूसरी जगह ) क्यों नहीं है ? यदि यह कहें कि वहीं 'इहेदं' प्रत्ययविशेष उत्पन्न होता है तो हम यही तो जानना चाहते हैं कि वही 'इहेदं' प्रत्ययविशेष अन्यत्र भी क्यों उत्पन्न नहीं होता? क्योंकि अतिशयोंकी भिन्नता समान है और अतिशयोंकी भिन्नताकी अपेक्षा ईश्वरज्ञान और तदतिरिक्तमें कोई विशेषता नहीं है । अतः जिसप्रकार 'इस महेश्वरज्ञान में अतिशय हैं इस तरह ईश्वरज्ञानसे सर्वथा भिन्न भी वे अतिशय उसमें प्रतीत होते हैं उसीप्रकार इस घटमें वे अतिशय प्रतीत हों। यदि कहा जाय कि 1. मु प स प्रतिषु 'समानः पर्यनुयोगः' इत्यधिकः पाठः । स चातावश्यकः प्रतिभाति । 2. द प्रती 'इह' पाठो नास्ति । स प्रती तु 'इदं' पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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