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प्राक्कथन
आप्तका अर्थ है-प्रामाणिक, सच्चा, कभी धोखा न देनेवाला, जो प्रामाणिक है, सच्चा है वही आप्त है। उसीका सब विश्वास करते हैं। लोकमें ऐसे आप्त पुरुष सदा सर्वत्र पाये जाते हैं जो किसी एक खास विषयमें प्रामाणिक माने जाते हैं या व्यक्तिविशेष, समाजविशेष और देशविशेषके प्रति प्रामाणिक होते हैं । किन्तु सब विषयोंमें खासकर उन विषयोंमें, जो हमारी इन्द्रियोंके अगोचर हैं, सदा सबके प्रति जो प्रामाणिक हो ऐसा आप्त-व्यक्ति प्रथम तो होना ही दुर्लभ है और यदि वह हो भी तो उसकी आप्तताकी जाँच करके उसे आप्त मान लेना कठिन है।
प्रस्तुत ग्रन्थके द्वारा आचार्य विद्यानन्दने उसी कठिन कार्यको सुगम करनेका सफल प्रयास किया है। वैदिक दर्शनोंकी उत्पत्ति
प्राचीनकालसे ही भारतवर्ष दो विभिन्न संस्कृतियोंका संघर्षस्थल रहा है। जिस समय वैदिक आर्य सप्तसिंधु देशमें निवास करते थे और उन्हें गंगा-यमुना और उनके पूर्वके देशोंका पता तक नहीं था तब भी यहाँ श्रमण संस्कृति फैली हई थी, जिसके संस्थापक भगवान् ऋषभदेव थे। जब वैदिक आर्य पुरवकी ओर बढ़े तो उनका श्रमणोंके साथ संघर्ष हुआ। उसके फलस्वरूप ही उपनिषदोंकी सृष्टि हुई और याज्ञिक क्रियाकाण्डका स्थान आत्मविद्याने लिया। तथा इन्द्र, वरुण, सूर्य, अग्नि आदि देवताओंके स्थान में ब्रह्माकी प्रतिष्ठा हई। माण्डक्य उपनिषदमें लिखा है कि 'दो प्रकारको विद्याएँ अवश्य जाननी चाहिये-एक उच्च विद्या और दूसरी नीची विद्या। नीची विद्या वह है जो वेदोंसे प्राप्त होती है और उच्च विद्या वह है जिससे अविनाशी ब्रह्म मिलता है।' इस तरह जब वेदोंसे प्राप्त ज्ञानको नीचा माना जाने लगा और जिससे अविनाशी ब्रह्मकी प्राप्ति हो उसे उच्च विद्या माना जाने लगा तो उस उच्च विद्याकी खोज होना स्वाभाविक ही था। इसी प्रयत्नके फलस्वरूप उत्तरकालमें अनेक वैदिक दर्शनोंकी सृष्टि हुई, जो परस्परमें विरोधी मान्यताएँ रखते हुए भी वेदके प्रामाण्यको स्वीकार करनेके कारण वैदिक दर्शन कहलाये। सर्वज्ञताको लेकर श्रेणिविभाग
वैदिक परम्पराके अनुयायी दर्शनोंमें सर्वज्ञताको लेकर दो पक्ष हैं। मीमांसक किसी सर्वज्ञको सत्ताको स्वीकार नहीं करता, शेष वैदिक दर्शन स्वीकार करते हैं। किन्तु श्रमण-परम्पराके अनुयायी, सांख्य, बौद्ध और
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