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कारिका ५ ]
२९
पदार्थ इत्याभिधीयते तदाऽपि वैशेषिकतन्त्रव्याघातो दुःशक्यः परिहत्तुम्, स्याद्वादिमतस्यैवं प्रसिद्धेः । स्याद्वादिनां हि शुद्धसंग्रहनयात् ' सत्प्रत्ययाविशेषाद्विशेषलिंगाभावादेकं सन्मात्रं तत्त्वं शुद्धं द्रव्यमिति मतम् । तथैवाशुद्धसंग्रहनयादेकं द्रव्यमेको गुणादिरिति । व्यवहारनमात्तु यत्सत्तद् द्रव्यं पर्यायो वेति भेदः । यद्द्रव्यं तज्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं च, यश्च पर्याय : सोऽपि परिस्पन्दात्मकोऽपरिस्पन्दात्मकश्चेति । सोऽपि सामान्यामको विशेषात्मकश्चेति । स च द्रव्यादविष्वग्भूतो' विष्वग्भूतो' वेति यथाप्रतीतिनिश्चीयते सर्वथा बाधाकाभावात् । वैशेषिकाणां तु तथाभ्युपगमो व्याहत एव तन्त्रविरोधात् । न हि तत्तन्त्रे सन्मात्रमेव तत्त्वं सकल
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माना जाता है, तो इस कथनमें वैशेषिकोंके सिद्धान्तका विरोध आता है जिसका परिहार ( दूर ) करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि इस प्रकारके कथनसे स्याद्वादियों ( जैनों ) के मतकी सिद्धि होती है । स्याद्वादियों के यहाँ ही शुद्धसंग्रहनयसे 'सत्' प्रत्यय सामान्य के होने और विशेषप्रत्ययके न होने से 'सन्मातत्त्व शुद्ध द्रव्य है' ऐसा माना गया है और अशुद्धसंग्रहनय से एक द्रव्य है, एक गुण है, आदि माना गया है । किन्नु व्यवहारनयसे 'जो सत् है वह द्रव्य है अथवा पर्याय है' इस प्रकार भेद स्वीकार किया गया है । जो द्रव्य है वह जीवद्रव्य और अजीवद्रव्यके भेदसे दो प्रकारका है और जो पर्याय है वह भी परिस्पन्दरूप और अपरिस्पन्दरूप दो तरह की है । ये दोनों भी सामान्य तथा विशेषरूप हैं । सो ये पर्यायें द्रव्यसे कथञ्चिद् भिन्न और कथंचिद् अभिन्न प्रतीत होती हैं और इसलिए कोई बाधक न होनेसे उसी तरह वे निर्णीत की जाती हैं । लेकिन वैशेषिकों का वैसा मानना विरुद्ध है क्योंकि उसमें उनके सिद्धान्त ( शास्त्र ) का विरोध आता है । कारण, उनके मत में 'सन्मात्र हो तत्त्व है, उसीमें समस्त पदार्थों
१. अपृथक्भूतः ।
२. पृथक्भूतः ।
ईश्वर-परीक्षा
1 मु स प 'तथापि ।
2. द 'नयसत्प्र' |
3. व 'नयाच्च' ।
4. व 'यः' ।
5. द 'सोऽपरिस्पन्दात्मक, परिस्पन्दात्मकश्चेति' । 6. व 'द्रव्यादिविष्वग्भूतो' ।
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