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________________ आप्तपरीक्षा-स्वोपज्ञटीका [कारिका २ कारैरवश्यंकरणात् । तदकरणे' तेषां तत्कृतोपकारविस्मरणादसाधुत्वप्रसङ्गात् । साधूनां कृतस्योपकारस्याविस्मरणप्रसिद्धः। 'न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' [त. इलो. पृ. २, उ. ] इति वचनात् । यदि पुनः स्वगुरोः संस्मरणपूर्वकं शास्त्रकरणमेघोपकारस्तद्विनेयानामिति मतम्, तदा सिद्धं परमेष्ठिगुणस्तोत्रम्, स्वगुरोरेव परमेष्ठित्वात् । तस्य गुरुत्वेन संस्मरणस्यैव तद्गुणस्तोत्रत्वसिद्धेरित्यलं विवादेन । [ सूत्रकारोदितपरमेष्ठिगुणस्तोत्रस्य निगदनम् ] $ १५. किं पुनस्तत्परमेष्ठिनो गुणस्तोत्र शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते-- बद्ध वाचिक या मानसिकरूपसे विस्तार या संक्षेपमें शास्त्रकारोंद्वारा अवश्य ही किया जाता है। यदि वे न करें तो उनके उपकारोंको भूल जाने अथवा भुला देनेसे वे (शास्त्रकार ) असाधु-कृतघ्न कहलाये जायँगे । पर 'साधुजन कृत उपकारको कदापि नहीं भूलते-वे कृतज्ञ होते हैं' यह सर्वप्रसिद्ध अनुश्रुति है क्योंकि कहा है :-'साधुजन अपने प्रति किये दूसरोंके उपकार को नहीं भूलते हैं।' और यदि यह कहा जाय कि अपने गुरुका स्मरण करके शास्त्रको रचना ही उनके शिष्योंका उपकार ( उपकारोल्लेख ) है तो शास्त्रमें परमेष्ठीका गुणस्तवन सिद्ध हो जाता है क्योंकि अपना गुरु ही परमेष्ठी (आराध्य-वन्दनीय ) है और इसलिए उनका गुरुरूपसे स्मरण करना ही परमेष्ठीका गुणस्तोत्र है। अतः और अधिक चर्चा अनावश्यक है ॥ २ ॥ $ १५. शङ्का-परमेष्ठीका वह गुणस्तवन कौन-सा है जिसे शास्त्रारम्भमें सूत्रकारने कहा है ? १. भगवद्गुणस्तवनाकरणे । २. शास्त्रकाराणाम् । ३. पूर्णोऽयं श्लोक । इत्थं वर्तते-- अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादप्रबु धैर्न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति । --तत्त्वार्थश्लोक० पृ० २ उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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