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________________ कारिका २] परमेष्ठिगुणस्तोत्रप्रयोजन व्युत्पत्तेः । 'मलं गालयतीति मंगलम्' इति वा, मलस्याधर्मलक्षणस्य परम्परया तेन प्रध्वंसनात् । केवलं सत्पात्रदान-जिनेन्द्रार्चनादिकमप्येवं मंगलमिति न तद्गुणस्तोत्रमेव मंगलमिति नियमः सिद्ध्यति । १२. स्यान्मतम्-मंगं श्रेयोमार्गसम्प्राप्तिजनितं प्रशमसुखं तल्लात्यस्मात्परमेष्ठिगुणस्तोत्रात्तदाराधक इति मंगलं परमेष्ठिगुणस्तोत्रम् । मलं वा श्रेयोमार्गसंसिद्धौ विघ्ननिमित्तं पापं गालयतीति मंगलं तदिति; तदेतदनुकूलं नः; परमेष्ठिगुणस्तोत्रस्य परममंगलवप्रतिज्ञानात् । तदुक्रम् "आदौ मध्येऽवसाने च मंगलं भाषितं बुधैः ।। तज्जिनेन्द्रगुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये ।।'' [ धवला १-१-१ उद्धृत ] गलाता है वह मंगल है। और ये दोनों ही कार्य परमेष्ठीके गणस्तोत्रसे होते हैं । इसलिये परमेष्ठीका गुणस्तवन स्वयं मंगल है । लेकिन इस प्रकार सत्पात्रदान, जिनेन्द्रपूजन आदि भी मंगल सिद्ध होते हैं, क्योंकि धर्मको उत्पत्ति और अधर्मका क्षय उनसे भी होता है और इसलिये यह नियम सिद्ध नहीं होता कि 'परमेष्ठीका गुणस्तवन ही मंगल है और अन्य मंगल नहीं हैं ।' अतः ‘मंगल' शब्दकी व्युत्पत्तिपरसे इतना ही अर्थ इष्ट होना चाहिये कि 'परमेष्ठीका गुणस्तवन मंगल है ।' 'परमेष्ठीका गुणस्तवन ही मंगल है' ऐसा 'ही' शब्दके प्रयोगके साथ नियम करना इष्ट नहीं होना चाहिये। १२. शङ्का-'मंग' शब्दसे श्रेयोमार्गकी सम्यक् प्राप्तिसे उत्पन्न प्रशम ( कषायमन्दता ) रूप सुखका ग्रहण किया जाय और उसे आराधक जिससे प्राप्त करे उसको मंगल कहा जाय । इसी तरह 'मल' शब्दसे श्रेयोमार्गको सम्यक् सिद्धि ( प्राप्ति अथवा ज्ञान ) में विघ्नोत्पादक पापको लिया जाय और वह जिससे गलता है उसे मंगल कहना चाहिये। और इस प्रकारसे केवल परमेष्ठोके गुणस्तवनको मंगल मानना एवं प्रतिपादन करना उचित है ? __समाधान- यह हमारे सर्वथा अनुकूल है। अर्थात् हमें पूर्णतः इष्ट है क्योंकि परमेष्ठीके गुणस्तवनको सबसे बड़ा और उत्तम मंगल माना गया है। कहा भी है :___"आदि, मध्य और अन्तमें आनेवाले विघ्नोंको नाश करनेके लिये १. शास्त्रे विघ्नाभावप्रसिद्धयर्थम् । २. एसो पंचणमोयारो सव-पाव-प्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि पढम होइ मंगलं ॥" 1. द 'मंगल' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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