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________________ कारिका २] परमेष्ठिगुणस्तोत्रप्रयोजन १०-२] इति वचनात् । ततोऽपरमार्हन्त्यलक्षणम्, 'घातिकर्मक्षयादनन्तचतुष्टयस्वरूपलाभस्यापरनिःश्रेयसत्वात्। न चात्र कस्यचिदात्मविशेषस्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षोऽसिद्धः साधकप्रमाणसद्भावात् । तथा हि ३. कश्चिदात्मविशेषः कृत्स्नकर्मभिर्विप्रमुच्यते, कृत्स्नबन्धहेत्वभाव निर्जरावत्त्वात् । यस्तु न कृत्स्नकर्मभिर्विप्रमुच्यते स न कृत्स्नबन्धहेत्वभावनिर्जरावान्, यथा संसारी। कृत्स्नबन्धहेत्वभावनिर्जरावांश्च कश्चिदात्मविशेषः । तस्मात्कृत्स्नकर्मभिर्विप्रमुच्यते । ४. ननु बन्ध एवात्मनोऽसिद्धस्तद्धेतुश्च, इति कुतो बन्धहेत्वभाववत्त्वम् ? प्रतिषेधस्य विधिपूर्वकत्वात् । बन्धाभावे च कस्य निर्जरा ? बन्धफलानुभवनं हि निर्जरा । बन्धाभावे तु कुतस्तत्फलानुभवनम् ? अतः निर्जराके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंके सर्वथा छूट जानेको 'मोक्ष' कहा गया है । और परमोच्च अरहन्त अवस्थाका प्राप्त होना अपरनिःश्रेयस है। कारण, घातियाकर्मोंके क्षयसे जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप अनन्तचतुष्टयस्वरूपकी प्राप्ति होती है उसे अपरनिःश्रेयस माना गया है । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी आत्मा विशेषके सम्पूर्ण कर्मोंका सर्वथा क्षय होना प्रसिद्ध है क्योंकि उसको सिद्ध करनेवाला प्रमाण मौजूद है । वह इस प्रकार है : ६३. 'कोई विशेष आत्मा समस्त कर्मोंसे सर्वथा मुक्त हो जाता है, कारण संवर और निर्जरावान है। जो सम्पूर्ण कर्मोंसे मुक्त नहीं है वह पूर्ण संवर और निर्जरावान् नहीं है, जैसे संसारी जीव । और सम्पूर्ण संवर तथा निर्जरावान् कोई विशेष आत्मा अवश्य है इसलिए समस्त कर्मोंसे मुक्त भी हो जाता है।' ४. शङ्का-जब आत्माके कर्मबन्ध ही असिद्ध हैं और कर्मबन्धके कारण भी असिद्ध हैं-दोनों ही सिद्ध नहीं हैं तब यह कैसे कहा जा सकता है कि किसी आत्माविशेषके बन्धुहेतुओंका अभाव (संवर ) है क्योंकि अभाव सद्भावपूर्वक ही होता है। और इस तरह जब बन्ध ही सम्भव नहीं है तब निर्जरा भी किसकी ? कारण, बन्धके फलका अनुभवन करना ही निर्जरा है । अतएव जब बन्ध नहीं तो उसके फलका अनुभवन (निर्जरा) १. ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्यानि चत्वारि कर्माणि घातिकर्माण्युच्यन्ते । २. संवरः । 1. द स तु'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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