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________________ श्री समन्तभद्राय नमः श्रीमदाचार्यविद्यानन्दस्वामि-विरचिता आप्त-परीक्षा स्वोपज्ञाप्तपरीक्षालकृति-टोकायुता (हिन्दी-अनुवाद-सहिता ) [परमेष्ठिगुणस्तोत्रम् ] प्रबुद्धाशेषतत्त्वार्थ-बोध-दीधिति-मालिने । नमः श्रीजिनचन्द्राय' मोह-ध्वान्त-प्रभेदिने ॥१॥ जो समस्त पदार्थ-प्रकाशक ज्ञान-किरणोंसे विशिष्ट हैं और मोहरूपी अन्धकारके प्रभेदक हैं उन श्रीजिनरूप चन्द्रमाके लिए नमस्कार हो ॥१॥ विशेषार्थ-इस मङ्गलाचरण-कारिकाद्वारा श्रीजिनेन्द्रके लिये चन्द्रमाकी उपमा देकर उन्हें नमस्कार किया गया है। जिस प्रकार चन्द्रमा समस्त लोकगत पदार्थों को प्रकाशित करनेवाला है, उसी प्रकार श्रीसम्पन्न जिनेन्द्र भगवान् भूत, भावो और वर्तमान सम्पूर्ण जीवादि पदार्थों के ज्ञाता और मोहनीयकर्मका नाश करनेवाले हैं। मोहनीयकर्म वह अन्धकार है जिसकी वजहसे आत्मा अपने निजस्वरूपको देख और जान नहीं पाता है। इस मोहनीयकर्मका जिन महान् आत्माओंने नाश कर दिया है और इस तरह जिन्होंने सर्वज्ञता भी प्राप्त कर ली है, वे 'जिन' अथवा 'जिनेन्द्र' या 'अरिहन्त' इस संज्ञाद्वारा अभिहित होते हैं और उन्हींको परमात्मा भी कहते हैं। तात्पर्य यह कि 'कर्मारातीन् जयतीति जिनः' अर्थात् राग-द्वेषमोहादि कर्म-शत्रुओंपर जो पूर्णतः विजय पा लेते हैं उन्हें जैनदर्शनमें 'जिन' कहा गया है। १. चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय सकलजिनसमूहाय वा । २. मोहोऽज्ञानं रागद्वेषादिर्वा स एव ध्वान्तः अन्धकारस्तं प्रभेदी विश्लेषणकर्ता तस्मै इत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001613
Book TitleAptapariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages476
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size9 MB
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