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प्रस्तावना
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की है । अतः आ० विद्यानन्दका कार्यक्षेत्र मुख्यतः गङ्गवंशका गङ्गवाडि प्रदेश रहा मालूम होता है । गङ्गराजाओंका राज्य मैसूर प्रान्तमें था । वर्तमान मैसूर का बहुभाग उनके राज्यके अन्तर्गत था और जिसे ही गङ्गवाडि कहा जाता था । कहते हैं कि 'मैसूर में जो आजकल गङ्गडिकार ( गङ्गवाडिकार ) नामक किसानोंकी भारी जनसंख्या है वे गङ्गनरेशोंकी प्रजाके ही वंशज हैं' ।' और इसलिये यह प्रदेश उस समय 'गङ्गवाडि' के नामसे प्रसिद्ध था । गङ्गराजाओंका राज्य लगभग ईसाकी चौथी शताब्दी से ग्यारहवीं शताब्दी तक रहा है । आठवीं शताब्दी में श्रीपुरुषके राज्यकालमें गङ्गराज्य अपनी चरम उन्नतिको प्राप्त था । शिलालेखों और दानपत्रोंसे ज्ञात होता है कि इस राज्य के साथ जैनधर्मका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । जैनाचार्य सिंहनन्दिने इस राज्य की स्थापना में भारी सहायता की थी । पूज्यपाद देवनन्दि आचार्य इसी गङ्गराज्यके राजा दुर्विनीत ( लगभग ई० ५०० ) के राजगुरु थे आश्चर्य नहीं, ऐसे जैनशासन और जैनाचार्य भक्त राज्यमें विद्यानन्दने अनेकों बार विहार किया हो और निर्विघ्नता के साथ वहाँ रहकर अपने विशाल ग्रन्थोंका प्रणयन किया हो । अतः आ० विद्यानन्दका कार्यक्षेत्र गङ्गवाडि प्रदेश ( आधुनिक मैसूरका बहुभाग ) समझना चाहिए । उपसंहार
।
ऊपरकी पंक्तियों में हमने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टिसे कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है । इतिहास एक ऐसा विषय है जिसमें नवीन अनुसन्धान और चिन्तनकी आवश्यकता बनी रहती है । आशा है विद्वज्जन इसी दृष्टिसे इस प्रस्तावनाको पढ़ेंगे । इति शम् ।
वीरसेवामन्दिर, सरसावा
आषाढ़ी कृष्णद्वितीया,
वि० सं० २००४,
५ जून, १९४७
-- दरबारीलाल जैन, कोठिया
१. डॉ० हीरालाल एम. ए. द्वारा सम्पादित - जैन शिलालेखसंग्रह प्र० पृ० ७१ ।
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