SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१२ लब्धिसार-क्षपणासार ताके ऊपर तृतीय द्वितीय संग्रहकी रचना करी ताका विधान प्रथम समयवत् जानना । ऐसें हो आडी रचना इहां करी हैं । बहुरि ऐसे ही सूक्ष्म कृष्टिकारकका तृतीयादि अनिवृत्तिकरणका अंत - समय पर्यंत विधानकी रचना यथासंभव जाननी । बहुरि ताके अनंतरि सूक्ष्म सांपराय हो है । तहां प्रथम समयविषै सर्व मोहनीयका सत्त्व द्रव्य ऐसा स । ३ । १२ इहां उत्कृष्ट समय प्रबद्धक ७ गुणहानिकर गुण सर्व सत्त्व द्रव्य होइ ताकौं सातका भाग दोएं मोहका सत्त्व द्रव्य जानना । arat अपकर्षण भागहारका भाग दीएं अपकृष्ट द्रव्य ऐसा स । १२ याक पल्यका असंख्यातवां ७ ओ भागका भाग दोएं एक भाग ऐसा स । ३ । १२ ताकौं सूक्ष्म सांपरायका कालतैं किछू अधिक जो ७। ओप a अवस्थित गुणश्रेणि आयाम ताविषै गुणकार क्रमकरि देना । तहां अंकसंदृष्टि अपेक्षा पिच्यासीका भाग ताकी देइ एककरि गुण प्रथम निषेकविषै चौसठिकरि गुणें अंत निषेकविषै दीया द्रव्य हो है । १० बहुरि बहुभाग ऐसे स ३ । १२ - इहां गुणकारविषै एक होनकौं न गिणि पल्य के असंख्यातवे ७ । ओ । प a भागका अपवर्तन कीएं ऐसा स । १२ बहुरि अंतरायामका प्रमाण संख्यात गुणा अंतर्मुहूर्त मात्र ७ । ओ ऐसा २ २ । ४ यातैं संख्यात गुणा स्थिति कांडकायाम ऐसा २२ । ४ । ४ यात संख्यात गुणी कांडकके नीचें अवशेष रही स्थिति सो ऐसी २ । ४ । ४ । ४ इहां गुणकारनिकों परस्पर गुण Sisatara ऐसा २० । १६ अर अवशेष स्थिति ऐसी - २२ । ६४ इनिकों मिलाएं द्वितीय स्थितिका प्रमाण ऐसा २२ । ८० याकौं अंतरायामका भाग दोएं वीस पाए ताका भाग तिस बहुभाग देइ च्यारिती अंतरायामविषै दीएं तिनकी संदृष्टि ऐसी स । ३ । १२ । ४ अर सोलह ७ । ओ । २० भाग प्रमाण द्रव्य द्वितीय स्थितिविषै दीया ताकी संदृष्टि ऐसी स । १२ । १६ इहां यथा योग्य ७ । ओ । २० संख्यातकी सहनानी च्यारिका अंककरि ऐसी संदृष्टि करी है । बहुरि अपना अपना द्रव्यकौं अपना अपना आयाममात्र गच्छका अर एक घाटि गच्छका आधाकरि न्यून दोगुणहानिका भाग दोएं विशेष होइ । ताक दोगुणहानिकरि गुण प्रथम निषेकविषै अर तिस गुणकारविषै क्रमतें एक एक घटाइ एक घाटि अपने गच्छमात्र घटें अंत निषेकविषै दीया द्रव्य हो है । इहां अंतरायामका गच्छ ऐसा २२ । ४ अर द्वितीय स्थितिका गच्छ ऐसा २२ । ८० जानना । तहां द्वितीय स्थितिविषै अंती अतिस्थापनावलीविषै द्रव्य दीजिए है । तातें तिस गच्छविषै इतना घाटि है । तथापि ताकौं किंचित् जानि दृष्टिविषै नाही गिन्या है । इनकी संदृष्टि ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy