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________________ ( ४८ ) दोयस पचास परमाणू तौ उदयावलीविष दई सो अठतालीस निषेकनिविष प्रथमादि च्यारि निषेक उदयावली के हैं तिनविषं चय घटता क्रमकरि मिलाइए। बहुरि एक हजार परमाणू गुणश्रेणि आयामविर्षे दई सो पांचवा आदि बारहवां पयंत आठ निषेक गुणश्रेणि आयामके हैं तिनविर्षे असंख्यातगुणा क्रम लीएं मिलाइए । बहुरि तीन हजार सातसै पचास परमाण उपरितन स्थितिविर्षे दई सो छत्तीस निषेक अवशेष रहे तिनिविष अंतके च्यारि निषेक अतिस्थापनारूप छोडि अवशेष तेरहवां आदि चवालीस पर्यंत बत्तीस निषेकनिविर्षे नाना गुणहानिकी रचना लीएं चय घटता क्रमकरि मिलाइए। ही दाष्टीतविष यथासंभव प्रमाण जानि स्वरूप जानना । चय घटता क्रमकरि वा असंख्यातगुणा क्रमकरि मिलाइए । मिलावनेका विधान आगे कहेंगे । इहां यहु उदयावलीत बाह्य गुणश्रेणी आयामका स्वरूप दिखाया । बहुरि कहीं उदयादिक गुणश्रेणि आयाम हो है तहां अपकृष्ट द्रव्यविष केता इक द्रव्यकौं तो गुणश्रेणि आयाम प्रमाण जे वर्तमान समयसंबंधी निषेकलें लगाय निषेक तिनिविय असंख्यातगणा क्रमकरि मिला । अवशेषकौं उपरितन स्थितिविष मिलावै सो इहां गुणश्रेणिआयामविर्षे उदयावली गर्भित भई, तातै उदयादि गुणश्रेणि आयाम कहिए । बहुरि गुणश्रेणिके निषेकनिका प्रमाणमात्र जो यह गुणश्रेणिआयाम कह्या सो कहीं गलितावशेष हो है, कहीं अवस्थित हो है । तहां गलितावशेष गुणश्रेणिका प्रारंभ करनेकौं प्रथम समय विषं जो गुणश्रेणि आयामका प्रमाण था तामैं एक एक समय व्यतीत होते ताके द्वितीयादि समयनिविर्षे गुणश्रेणिआयाम क्रमतै एक एक निषेक घटता होइ अवशेष ग्है ताका नाम गलितावशेष हैं। बहुरि अवस्थित गुणश्रेणिआयामके प्रारंभ करनेका प्रथम द्वितीयादि समयनिविर्षे गणश्रेणिआयाम जेताका तेता रहै। ज्यं ज्यं एक एक समय व्यतीत होइ त्यूं त्यूं गुणश्रेणिआयामके अनंतरिवर्ती असा उपरितन स्थितिका एक एक निषेक गुणश्रेणि आयामविषं मिलता जाइ तहां अवस्थित गुणश्रेणिआयाम कहिए है। बहरि इस गुणश्रेणि आयामके अंतके बहुत निषेकनिका नाम कहीं गुणश्रेणि शीर्ष कह्या है। कहीं अंतके एक निषेकका ही नाम गुणश्रेणी शीर्ष है। जातै शीर्ष नाम ऊपरिवर्ती अंगका है। असे विवक्षित स्थानविर्षे यथासंभव प्रमाण जानि गुणश्रेणि निर्जराका विधान जानना । बहुरि इहां उदयावलीविर्षे दीया द्रव्य ताका नाम उदीरणा जानना । बहरि जहां स्तोक स्थिति सत्त्व अवशेष रहै है तहां गुणश्रेणिका भी अभाव हो है। अपकृष्ट द्रव्यविषै केताइक द्रव्यकौं उदयावलीविर्षे देइ अवशेषकौं उपरितन स्थितिविर्षे दे है। बहरि एक समय अधिक आवलीमात्र स्थिति रहें आवलीके उपरिवर्ती जो एक निषेक ताका द्रव्यकौं अपकर्षणकरि उदयावलीके२ निषेकनिविषे एक समय घाटि आवलीका दोय त्रिभागमात्र निषेकनिकौं अतिस्थापनारूप छोडि समय अधिक आवलीकौं त्रिभागमात्र निषेकनिविष मिलावै है। तहां जघन्य उदीरणा नाम पावे है। असैं अपकृष्टि विधान है। इहां असा जानना कांडकविधानते तो स्थिति सत्त्वका घटना मूलतै हो है जात तहां ऊपरिके केते इक निषेकनिका नाशकरि स्थिति सत्त्वका घटना मूलते है। बहरि अनुकृष्टि विधानविष ऊपरिकी निषेकनिकी केती इक परमाणू निहीकी स्थिति घटाइए है। मूलतें निषेक नाश नाही होइ, तातै मलते स्थितिसत्त्व घटना न हो है । बहरि स्थितिसत्त्वविषै आवलीमात्र अवशेष रहै ताका नाम उच्छिष्टावली है। तहां उदीरणा आदि कार्य न हो है। पूर्व कार्य भए थे तिनिकरि एक एक समयवि उदय आवने योग्य असे १. यहाँ जिस ४८३ निषेकके कुछ द्रव्यका अपकर्षण हआ है उसे भी अतिस्थापनावलिमें सम्मिलित कर उनका कथन किया गया है। २. मुद्रित प्रतिमें 'अपकर्षणकरि उदयावलिके निषेकनिवि. एक समयघाटि आवलिका उपरिवर्ती जो एक निषेकताका द्रव्यकौं अपकर्षणकरि उदयावलिके' ऐसा पाठ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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