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________________ । ४६ ) कालके प्रथमादि समयनिविर्षे तितना समान स्थितिबंध हवा करै । जैसे ही यथासम्भव प्रमाण जानि स्वरूप जानना । असे स्थितिबंध घटते अपना व्यच्छित्ति होनेका समयविषै जघन्य स्थितिबंध हो है, पीछे स्थितिबंधका नाश है । सो आयु विना सर्व प्रकृतिनिका औसै क्रमत जानना । आयुका स्थितिबंधापसरण न संभव है, जात नरक विना तीन आयुका स्थितिबंध विशुद्धतातें अधिक हो है। बहुरि अन्य सर्व शुभाशुभ प्रकृतिनिका स्थितिबंध संक्लेशतातें तो बहुत हो है अर विशुद्धतात स्तोक हो है। बहुरि अनुभागबंध है सो पापप्रकृतिनिका तौ संक्लेशतातै बहुत हो है अर विशुद्धतात स्ताक हो है। बहरि पुन्य प्रकृतिनिका संक्लेशतात स्तोक हो है अर विशुद्धतातें बहुत हो है। सो अनंतगुणा वा यथासम्भव घटता वा बधता अप्रशस्त वा प्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागबंध अधिक होन क्रमते जैसें जहां संभव तैसे तहां जानना । बहरि प्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागबंध अधिक होनेते किछु आत्माका बुरा होता नाही, जातै संसारविष रहना तो स्थितिबंधके अनुसारि है अर घातियानित आत्माका बुरा होइ सो घातिया अप्रशस्त हो है, तातै दर्शनचारित्रकी लब्धितै प्रशस्त प्रकृतिनिके अनुभागकी अधिकता अप्रशस्त प्रकृतिनिके अनुभागकी हीनता हो है। तहां कषायनिका अभाव भए सर्वथा अनुभागबंधका अभाव हो है। असे बंधके अभावते संवर होनेका विधान जानना । अब सत्त्वनाशका क्रम कहिए है दर्शन-चारित्र लब्धिके निमित्ततै पहलै मिथ्यात्वादि अति अप्रशस्त प्रकृतिनिका पीछे ज्ञानावरणादि अप्रशस्त प्रकृतिनिका वा प्रशस्त प्रकृतिनिका सत्त्व नाश हो है सो सत्त्वनाश स्वमुख उदय करि अर परमुख उदय करि दोय प्रकार हो है । तहां जो प्रकृति अपने ही रूप रहि अपनी स्थिति सत्त्वका अंत निषेकका उदय भए अभावकौं प्राप्त होइ ताका स्वमुख उदय करि सत्वनाश कहिए। जैसैं संज्वलन लोभ है सो क्षपक सूक्ष्मसांपरायका अंतविर्षे अपने ही रूप उदय होइ नाशकौं प्राप्त हो है। बहुरि जो प्रकृति संक्रमणके वशते अन्य प्रकृतिरूप परिणमि करि अपना अभावकों प्राप्त होइ ताका परमुख उदय करि सत्वनाश कहिए । जैसे अनंतानुबंधीका विसंयोजन होते अनंतानुबंधी कषाय है सो अन्य कषायरूप परिणमि नाशकौं प्राप्त हो है। जैसे ही यथासंभव अन्यत्र जानना। बहुरि एक एक सत्ताके निषेकके परमाणू एक एक समयविर्षे उदयरूप होइ निर्जरै। बहुरि दर्शन-चारित्र लब्धिके निमित्ततें ऊपरिके निषेकनिके परमाणू नीचले निषेकरूप होइ परिणम हैं। तहां एक एक समयविर्षे साधिक समयप्रबद्धकी वा अनेक समयप्रबद्ध निकी निर्जरा होइ अर बंध समय समय प्रति एक एक समयप्रबद्धका हो होइ, तातें तहां निर्जरा बहुत हो है अर बंध स्तोक हो है। अथवा किसी कालवि. कोई प्रकृतिका बंध नाही हो है, केवल निर्जरा ही हो है। असे सर्व कर्म परमाणूनिका नाश भए सर्वथा प्रदेशसत्त्वका नाश हो है। बहुरि स्थितिसत्व जो पाइए है तातें एक एक समय व्यतीत होते तो एक एक समय घट ही है । बहरि दर्शन-चारित्र लब्धिके निमित्ततें स्थिति कांडकविधान” वा अपकृष्ट विधानतें स्थितिसत्वका घटना हो है । तहां प्रथम कांडक विधान कहिए है बहत प्रमाण लीए स्थितिसत्त्व था ताके समय समय विर्षे उदय आवने योग्य बहुत ही निषेक थे तिनविर्षे केते इक ऊपरिके निषेकनिका फालिक्रमसे नाश करि स्थितिसत्त्व घटावना। तहां तिनि नाश करने योग्य निषेकनिके जे सर्व परमाणू तिनिकौं नाश कीए पीछे जो स्थिति रहेगी ताके आवलीमात्र ऊपरिके निषेक जिनमें मिलाया उनके ऊपरके निषेक छोडि सर्व निषेकनिविष मिलाइए है। तहां तिनि सर्व परमाणनिवि केते इक परमाणु पहिले समय मिलाइए है, केते इक दूसरे समय मिलाइए है, जैसे यथासंभव अंतर्मुहर्त काल पर्यंत परमाणनिकौं नीचले निषेकनिविर्षे प्राप्त करिए तहां अंत समयविष अवशेष रहे सर्व परमाण निकौं नीचले निषेकनिविष प्राप्त होते संत तिनि नाश करने योग्य निषेकनिका नाश भया तब जितने निषेकनिका नाश भया तितना समयप्रमाण स्थितिसत्त्व तहां घटता भया । इहां दृष्टांत . चहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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