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________________ ... गुरुजनोंके स्मरणपूर्वक इष्टप्राप्तिको कामना ५१३ जहाँ मूल वस्तुका नाश होइ तौ ताके अथि उपाय काहेकौं करिए। ज्ञानी तो अपूर्व लाभके अथि उपाय करै, तातै अभावमात्र मोक्ष कहना युक्त नाही। बहुरि योगमतवाला कहै है-बुद्धि सुख दुःख इच्छा द्वेष प्रयत्न धर्म अधर्म संस्कार ए नव आत्माके गुण हैं तिनका नाश सोइ मोक्ष है। ताकौं भी तिस पूर्वोक्त वचनहीकरि निराकरण समाधान कीया। जहां विशेषरूप गुणनिका अभाव भया तहाँ आत्मवस्तुका अभाव आया सो बनै नाही । बहुरि सांख्यमतवाला कहै है-रि भया है कार्य-कारणसम्बन्ध जाका ऐसा सो आत्मा ताकै बहुत सूता पुरुषकी ज्यों अव्यक्त चैतन्यतारूप होना सो निर्वाण है। ताका भी पूर्वोक्त वचनकरि निराकरण भया । इहां भी अपना चैतन्यगुण था सो उलटा अव्यक्त भया। ऐस नाना प्रकार अन्यथा प्ररूपै हैं । तिनिका निराकरण जैनके न्याय शास्त्रनिमें कीया है सो जानना । मोक्ष अवस्थाकौं प्राप्त सिद्ध भगवान हैं ते निरंतर अनंत अतींद्रिय आनन्दकौं अनुभवें हैं। जातै इन्द्रिय मनकरि किंचित् जानना होइ अर किछु निराकुलता होइ तब ही आत्मा आपकौं सुखी मान है। तो जहां सर्वका जानना भया अर सर्वथा निराकुलपना भया तौ तहां परम सुख कैसैं न हो है ? तीन लोकके तीन कालसम्बन्धी पूण्यवंत जीवनिका सूखते भी अनंतगणा सुख सिद्धनिकै एक समयविष हो है। जाते संसारविर्षे सुख ऐसे हैं जैसैं महारोगो किंचित् रोगकी हीनता भए आपको सुखी मानै अर सिद्धनिकै सुख ऐसे है जैसे रोगरहित निराकुल पुरुष सहज ही सुखी है । ऐसें अनंत सुख विराजमान पम्यक्त्वादि अष्ट गुण सहित लोकाग्रविर्षे विराजमान सिद्ध भगवान् हैं सो कल्याण करो। याप्रकार बाहुबलि नामा मंत्रीकरि पूजित जो माधवचंद्रनामा आचार्य ताकरि यतिवृषभ नामा आचार्य जाका मूलकर्ता, वीरसेन आचार्य टीकाकर्ता ऐसा धवल जयधवल शास्त्र ताके अनुसारि क्षपणासार ग्रंथ कीया। ताके अनुसारि इहां क्षपणाका वर्णनरूप जे लब्धिसारको गाथा तिनका व्याख्यान कीया ॥६५१।। अब आचार्य लब्धिसार शास्त्रकी समाप्ति करनेविर्षे अपना नाम प्रगट करै हैं वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणांदिसिस्सेण । दंसणचरित्तलद्धी सुसूयिया णेमिचंदेण ।।६५२।। वीरेंद्रनंदिवत्सेनाल्पश्रुतेनाभयनंदिशिष्येण । दर्शनचारित्रलब्धिः सुसूचिता नेमिचन्द्रेण ॥६५२॥ स० चं०-नेमिचंद्र आचार्य करि इस लब्धिसार नाम शास्त्रविर्षे दर्शन चारित्रकी लब्धि सो सुसूत्रिता कहिए भलेप्रकार कहो है। कैसा है नेमिचन्द, वीरनंदि अर इंद्रनंदि नामा आचार्य तिनिका वत्स है । ज्ञानदानकरि पोष्या है । बहुरि अभयनन्दि नामा आचार्य तिनिका शिष्य है ।।६५२॥ अब आचार्य अपने गुरूकौं नमस्काररूप अन्त मंगल करैं हैं - जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमत्तिण्णो । वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥६५३॥ यस्य च पादप्रसादेनानंतसंसारजलधिमुत्तीर्णः। वीरेंद्रनंदिवत्सो नमामि तमभयनंदिगुरुम् ॥६५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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